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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३१
गुरुभक्ति -
उपाध्याय यशोविजयजी जितने विद्वान थे, उतने ही विनयशीला उनकी गुरुभक्ति पराकाष्ठा की थी। उन्होंने विनय से अपने गुरु का हृदय जीत लिया था । गुरु शिष्य के हृदय में निवास करें, यह बात साधारण है, परंतु गुरु के हृदय में शिष्य बस जाए यह शिष्य की बहुत बड़ी विशेषता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उपाध्याय यशोविजयजी है। उनके गुरु नयविजयजी ने यशोविजयजी की कितनी ही कृतियों की हस्तप्रतियाँ लिखकर तैयार की। गुरु स्वयं के शिष्य की कृतियों की हस्तप्रतियाँ तैयार करके दे, ऐसा कोई अन्य उदाहरण देखने में नहीं आता है। इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि गुरु-शिष्य का संबंध कितना स्नेह तथा आदर वाला होगा। उनकी उत्कृष्ट गुरुभक्ति और समर्पण के कारण ही वे ज्ञान को पचा सके। गुरुभक्ति पाचक चूर्ण का काम करती है। यशोविजयजी ने अध्यात्मसार के अन्तिम सज्जनस्तुति अधिकार में १५ वें श्लोक में नयविजयजी की महिमा को कितने भक्तिभावपूर्वक मनोहर कल्पना करके दर्शाया है, यह ध्यान देने योग्य है।
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गुणानुराग और विनय
लघुता में प्रभुता यह यशोविजयजी की एक विशेषता थी। उनमें गुणानुराग भी उत्कृष्ट कोटि का था । यशोविजयजी और आनंदघनजी- दोनों समकालीन थे। एक प्रचण्ड तेजस्वी विद्वान् और दूसरा गहन आत्मानुभवी अध्यात्मपथ का साधक वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध था। आनंदघनजी के दर्शन के लिए यशोविजयजी अत्यंत उत्सुक थे। जब इनका मिलन हुआ तब यशोविजयजी को बहुत आनंद हुआ यह घटना ऐतिहासिक और निर्विवाद है । उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा श्री आनंदघन की स्तुति रूप रची अष्टापदी इसका प्रमाण है। इसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है
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जस विजय कहे सुनो आनंदघन हम तुम मिले हजुर जस कहे सोहि आनंदघन पावत, अंतरज्योत जगावे, आनंद की गत आनंदघन जाने, ऐसी दशा जब प्रगटे, चित्त अंतर सो ही आनंदघन पिछाने,
७. यत्कीर्तिस्फूर्तिगानवहितसुरवधूवृन्दकोलाहलेन ।
प्रक्षुब्धस्वर्गसिंधोः पतितजलभरैः क्षालितः शैव्यमेति ।। अश्रान्त भ्रान्त कान्त ग्रह गण किरणैस्तापवान् स्वर्णशैलो भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजय बुधाः सज्जनव्रातधुर्याः । । १५ ।।
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