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३३६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
नहीं होता हैं।"६३° तीर्थंकर परमात्मा प्रतिदिन दो प्रहर उपदेश देते हैं, लेकिन मात्र साक्षीभाव से। मैं किसी का हित कर रहा हूँ, मैं कुछ कर रहा हूँ- इस प्रकार का कर्तत्त्वभाव उनमें नहीं होता है। जैसे स्वप्नकाल में शरीर, मन, इन्द्रियों द्वारा जिन क्रियाओं के करने की प्रतीति होती है, जाग्रत होने के बाद मुनष्य समझता है कि न तो मैंने वे क्रियाएँ की हैं और न मेरा उनसे कोई सम्बन्ध है, उसी प्रकार निर्विकारी योग साधक बहुजनहिताय बहुजनसुखाय के कार्यों में प्रवृत्त होते हुए भी उसमें उसका कर्तत्वभाव नहीं होता है। साक्षीभाव से वह सभी कार्य करता हैं, इसलिए वह राग-द्वेष से मुक्त रहता है। समत्वयोग को साधे बिना ऐसा साक्षीभाव भी सम्भव नहीं है।
ज्ञानाहंकार का विलय - जब तक अहम् रहता हैं, तब तक अर्हम् का उभावन नहीं होता है। व्यक्ति जब तक ज्ञान की सतह पर होता है, तभी तक उसमें ज्ञान के प्रदर्शन की भावना होगी, ज्ञान का अहंकार होगा; लेकिन जब वह ज्ञान के गहन सागर में डूब जाता है, जब ज्ञानयोग को साथ लेता है, तब उसका अहंकार भी विलुप्त हो जाता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं
गुणैर्यदि न पूर्णोऽसि, कृतमात्मप्रशंसया।
गणैरेवाऽसि पूर्णश्चेत् कृतमात्मप्रशंसया।" यदि त गुणों से पूर्ण नहीं है, तो फिर क्यों अपनी प्रशंसा करता है? क्यों अहंकार करता है? यदि तू गुणों से पूर्ण है, तो अपनी प्रशंसा से लाभ क्या? कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञानानंद से भरपूर ज्ञानयोगी में अहंकार और आत्मप्रशंसा जैसे दुर्गुण समाप्त हो जाते हैं। ज्ञानसार में कहा गया है- जिनका स्वरूप अपेक्षारहित ज्ञानमय है और उत्कर्ष तथा अपकर्ष की कल्पनाएँ जिनकी समाप्त हो गई हैं- ऐसा व्यक्ति ज्ञानयोगी होता है। जिनकी मान-अपमान, जय-पराजय, लाभ-हानि, अनुकूल-प्रतिकूल सभी के प्रति समान दृष्टि हो जो यशकीर्ति से और लोकसंज्ञा से मुक्त हो ऐसे ज्ञानयोगी अपने ज्ञान का भी अहंकार नहीं करते है जैसे फलों के आने पर वृक्ष झुक जाते हैं उसी प्रकार ज्ञानयोगी भी विनम्र होते हैं। जैसे-जैसे योग क साधना से समत्व का विकास होगा तो वह अपनी ही आत्मा के समान सभी की आत्मा को अनंत ज्ञानादि से युक्त ही जानेगा। जिसने भी अपने आत्मा का स्वरूप ज्ञान लिया है, जिसे यथार्थ ज्ञान
५३०. योगमुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय।
सर्वभूतातमभूतात्मा, कुर्वन्मपि न लिप्यते।७। गीता, अध्याय -५ ६३". ज्ञानसार १८/१ - उ. यशोविजयजी
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