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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३३५
हैं।" ६२८ वैचारिक समन्वय और वैचारिक अनाग्रह समत्वयोग का एक अपरिहार्य अंग है। समत्वयोग राग-द्वेष के द्वन्द्व से ऊपर उठाकर वीतरागता की ओर ले जाता है, अतः समत्वयोग की साधना से केवल मानसिक विषमता ही समाप्त नहीं होती है, बल्कि वैचारिक दृष्टि से पारिवारिक सहिष्णुता और समता की स्थापना भी होती है।
अनाग्रहदृष्टि को जैनदर्शन में अनेकान्तवाद या स्याद्वाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 'मेरा वही सच्चा'- इस प्रकार का आग्रह अनेकान्तवाद में नहीं होता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं-अनाग्रहीदृष्टि सभी दर्शनों के प्रति समभावपूर्ण होती है। वह किसी भी दर्शन से राग या द्वेष नहीं करती है। अन्य किसी बात के लिए भी उसका एकान्त आग्रह नहीं होता है। वह वस्तुतत्त्व का हर दृष्टिकोण से, हर पहलू से विचार करती है, अतः अनाग्रहदृष्टि का विकास करके विश्व की, राष्ट्र की, सामाजिक, पारिवारिक अनेक समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं और संघर्षों को समाप्त करके सुख और शांति का साम्राज्य स्थापित किया जा सकता है। यह समत्वयोग-साधना से ही सम्भव है।
साक्षीभाव का विकास - साक्षीभाव, अर्थात् 'ज्ञातादृष्टाभाव'। साक्षी 'इनि' प्रत्यय लगकर दो शब्दों से बना है- सह+अक्ष+इनि। अक्ष यानी देखना। साक्षिन, अर्थात् देखनेवाला, अवलोकन करने वाला। योगी समत्व की साधना में जैसे-जैसे आगे बढ़ता है उसका कर्ता-भोक्ता भाव समाप्त हो जाता है। जैसे-जैसे दृष्टाभाव पुष्ट होता जाता है, वह वैसे-वैसे अपने अन्तर की दुनिया में, अर्थात् आत्मा के स्वरूप में लीन होता जाता है और उसे सत्य का आभास होता जाता है। उ. यशोविजयजी ने कहा है कि ऐसा साधक “पौद्गलिक भावों का न मैं करने वाला हूँ, न कराने वाला हूँ और न मैं इसका अनुमोदन करने वाला हूँ- ऐसा चिंतन करने वाला आत्मज्ञानी साधक भोक्ता भाव में कैसे लिप्त हो सकता है।"५८ वह तो सिर्फ साक्षीभाव में रहता है। गीता में भी कहा गया है- “जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मस्वरूप को परमात्मस्वरूप समझता है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त
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विभिन्ना अपि पन्थानः समुद्रं सरिताभिव। मध्यस्थानां परं ब्रह्म, प्रप्नुवन्त्येकमक्षयम् ।।६ । माध्यस्थाष्टक, १६, ज्ञानसार नाऽहं पुद्गलभावानां, कर्ता कारयिताऽपि न।। नानुमन्ताऽपि चेत्यातमज्ञानवान् लिप्यते कथम् ।।२।। -निर्लोपाष्टक -११, ज्ञानसार
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