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________________ ३३४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री "योगी इन्द्रियों को जीतने वाला, कषायों पर विजय पाने वाला तथा वेद के खेद से रहित होता है।"६२६ अहम् और ममत्व का विसर्जन होने से उसमें समत्वभाव प्रकट होता है। योग की साधना से मन की शुद्धि बढ़ती जाती है और विषय-कषाय घटते जाते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगशतक में योग के अधिकारी की चर्चा करते हुए कहा है कि- अपुनर्बन्धक चरमपुद्गलावर्त में विद्यमान जीव योगमार्ग के अधिकारी है। ६२७ जीव जब चरमपुद्गलावर्त स्थिति (संसार-परिभ्रमण का अन्तिम कालखण्ड) में होता है, तब कषाय बहुत मन्द होते हैं। यहीं से योग के आरम्भ होता है। साधना में आगे बढ़ते हुए जीव जब अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ-चारों कषायों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करता है, तब वह सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है। मन की विशुद्धि बढ़ती जाती है। साधना में प्रगति करते हुए जब वह अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चारों कषायों का क्षय, क्षयोपशम या उपशम करता है, तब वह अणुव्रतादि धारण करते हुए धर्मक्रियाओं में अनुरत रहता है। अपनी भूमिका के अनुरूप योगसाधना में आगे बढ़ते हुए जब प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभइन चारों कषायों का क्षय, क्षयोपशम या उपशम करता है, तब वह महाव्रत को धारण करने के योग्य होता है। समत्व की साधना करते हुए तथा आत्मा में रमण करते हुए योगी की एकाग्रता बढ़ती जाती है और एक समय ऐसा आता है कि वह संज्वलनक्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों कषायों का क्षय करके वीतराग अवस्था को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार सम्पूर्ण कषायों का क्षय हो जाता है। अनाग्रहदृष्टि का विकास - योगसाधना का प्रमुख उद्देश्य यही है कि समत्व का विकास हो। समत्व के विकास होने पर वैचारिक संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। अनाग्रहदृष्टि का विकास होता है। सारे साम्प्रदायिक, पारिवारिक, सामाजिक आग्रह छूट जाते हैं। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "माध्यस्थ पुरुष, अथवा समत्वयोगी के अलग-अलग मार्ग एक अक्षय उत्कृष्ट परमात्मस्वरूप को उसी प्रकार प्राप्त करते हैं, जिस प्रकार नदियों के अलग-अलग प्रवाह समुद्र में मिल जाते ६२६. जितेन्द्रियो जितक्रोधो मानमायानुपद्रुतः लोभ संस्पर्शहितो वेदखेदविवर्जितः।।४६ | योगाधिकार १५, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी अहिगारी पुण एत्थं विन्नेओ अपुणबंधगाइ त्ति। -योगशतक, गाथा नं ६, आ. हरिभद्रसूरि ६२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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