________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३३१ ओर नहीं ले जाए, वह ज्ञान, भक्ति और क्रिया योगरूप नहीं बन सकती है, क्योंकि व्यक्ति समत्व के बिना पूर्णता की उपलब्धि नहीं कर सकता है; इसलिए उ. यशोविजयजी ने साम्ययोग की महत्ता बताते हुए कहा है- "ज्ञानी, क्रियावान, विरतिधर, तपस्वी, ध्यानी, मौनी और स्थिर सम्यग्दर्शन वाले साधु भी उस गुण को (आत्मस्वरूप) को कभी प्राप्त नहीं कर सकते हैं, जो गुण साम्यसमाधि में रहकर एक योगी प्राप्त करता है।"६२° अतः ज्ञान, भक्ति और क्रिया साम्ययोग को पुष्ट करे, तो ही उनकी सफलता है। गीता में भी कहा गया है- "ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है।" ६१ कहने का तात्पर्य यही है कि ज्ञानयोग, भक्तियोग और क्रियायोग- इन तीनों द्वारा ही रागद्वेषरहित अवस्था प्राप्त की जाती है और वही अवस्था साम्ययोग का उत्कृष्ट स्वरूप है।
साधक में एक योग के होने पर दूसरा योग प्रतिफलित नहीं होता हैयह धारणा समुचित नहीं है। मुख्य-गौण रूप में तो तीनों योग एक साथ होते हैं।
____ अब प्रश्न यह उठता है कि जब तीनों ही योगों द्वारा समत्व को ही प्राप्त करना है, तो इन तीनों योगों की अलग-अलग चर्चा क्यों की गई? इसका कारण यह है कि इस संसार में असंख्य प्राणी हैं और सभी जीवों की कक्षाएँ एक जैसी नहीं होती हैं। भक्तियोग और क्रियायोग की अपेक्षा ज्ञानयोग अधिक कठिन है, अतः सभी जीव सीधे ज्ञानयोग को नहीं साध सकते हैं। कोई व्यक्ति ज्ञान के द्वारा आत्मा के स्वरूप को समझकर राग-द्वेषादि कषायरूपी विभाव का त्याग करके समतारूप आत्मस्वभाव में स्थिर होता है। कोई व्यक्ति परमात्मा की भक्ति करते-करते आत्मस्वरूप समत्व की प्राप्ति कर लेता है। संत आनंदघनजी नमिनाथ भगवान् के स्तवन में भक्तियोग की पराकाष्ठा बताते हुए कहते हैं
६२०. ज्ञानी क्रियावान् विरतस्तपस्वी ध्यानी च मौनी स्थिरदर्शनश्च।
साधुर्गणं तं लभते न जातु, प्राप्नोति यं साम्यसमाधि निष्ठः ।।१४।। अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते। एक सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५।। श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय -५
६२१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org