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३३०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
१. भावना के रूप में - मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य- इन चार भावनाओं का चिन्तन करना। मैत्र्यादि भावनाओं को हृदय में धारण करने से विषमता दूर हो जाती है और शांति का झरना बहने लगता है।
२. आत्मशद्धि के रूप में - राग-द्वेष कषायरूपी मल की आत्मालोचना या प्रायश्चित्त आदि के द्वारा शुद्धि करना।
३. उपासना - आत्मिक गुणों की पूर्णता को प्राप्त कर चुके-ऐसे अरिहन्त, सिद्ध आदि की उपासना, गुणचिन्तन करना, जिससे स्वयं के गुणों का भी उत्कर्ष होता है।
४. चौथी महाऔषधि आत्मसाधना रूप है। इसका प्रभाव यह है कि आत्मा संयोगों से विरक्त होने लगती है। साधक संकल्प-विकल्पों से मुक्त होकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है और साम्ययोग के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप- "आत्मा ही सामायिक है"६१८ को प्राप्त कर लेता है। उ. यशोविजयजी१६ समत्व के महत्त्व को बताते हुए कहते हैं- “जो परमतत्त्व चंद्र, सूर्य, दीपक की ज्योति द्वारा भी पूर्व में कभी प्रकाशित नहीं हुआ, वह परमतत्त्व समतारूपी मणि का प्रकाश जब चारों तरफ फैलता है, तब प्रकाशित होता है" और इस समत्व को प्राप्त करने का प्रमुख साधन सामायिक है। सामायिक का प्रयोजन है आत्मस्वरूप की प्राप्ति और समत्व आत्मा का स्वरूप है, अतः सामायिक साधन और समता साध्य है।
ज्ञानयोग, भक्तियोग और क्रियायोग का साम्य में समन्वय
'राह अनेक और मंजिल एक'- यही बात यहाँ लागू होती है। चाहे साधक ज्ञानयोग की साधना करे, चाहे भक्तियोग की साधना करे, चाहे क्रियायोग की साधना करे, सभी का उद्देश्य, सभी की मंजिल, सभी का साध्य एक ही है'समत्व' को प्राप्त करना। अतः ज्ञानयोग, भक्तियोग और क्रियायोग- तीनों का ही समन्वय साम्ययोग में हो जाता है। तीनों योगों का ही उद्देश्य ममत्वबुद्धि का नाश करना और समत्व को प्रकट करना है। जो ज्ञान, भक्ति और क्रिया समत्व की
६५८. आया खलु सामाइए-भगवतीसूत्र ६१६. निशानभोमन्दिररत्नप्रदीप-ज्योतिर्भिरद्योतितपूर्वमन्तः।
विद्योतते तत्परमात्मतत्त्वम् प्रसृत्वरे साम्यमणिप्रकाशं ।।६।। - साम्ययोग-अध्यात्मोपनिषद - उ. यशोविजयजी
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