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३३२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
"जिनस्वरूप थई-जिन आराधे ते सही जिन-वर होवे रे मुंगी ईलिका ने चटकावे
ते भुंगी जग जोवे रे।।"६२२ जिस प्रकार इलिका भ्रमरी के ध्यान से भ्रमरी बन जाती है- यह सारा जगत जानता है, उसी प्रकार जिनेश्वर को स्वात्मा में प्रतिष्ठित करके, जिनेश्वररूप होकर जिनेश्वर की जो आराधना करता है, वह निश्चय ही वीतरागस्वरूप को प्राप्त करता है। कहने का तात्पर्य यही है कि साधक परमात्मा के स्वरूप को समझकर उनकी भक्ति में तल्लीन हो जाता है, वह समत्व के उच्च शिखर को प्राप्त कर लेता है। उसी प्रकार क्रियायोग के परिणाम से आत्मा निर्मल हो जाने से भी उच्चस्तरीय समभाव की प्राप्ति होती है हालाकि तीनों योग में ज्ञान का समावेश मुख्य या गौण रूप से रहता ही है।
जिस प्रकार सभी नदियाँ समुद्र में आकर मिल जाती हैं और सागररूप बन जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञानयोग, भक्तियोग और क्रियायोग का समन्वय समत्व में हो जाता है। समत्व के बिना सर्वदुःखों से मुक्ति नहीं है, अर्थात् मोक्ष नहीं होता है, इसलिए तीनों ही योगों का प्रमुख लक्ष्य समत्व की साधना है।
योग की साधना के परिणाम " यह सर्वविदित है कि नीम का बीज बोते हैं, तो नीम के फल की प्राप्ति । होती है और आम का बीज बोएंगे, तो आम के फल की प्राप्ति होगी। जैसे बीज बोएँगे, वैसे ही फलों की प्राप्ति होगी।
योग की साधना आम के बीज के समान है, जिसके मधुर सुखद परिणामों का अनुभव अवश्य होता है। पूर्व में हमने बताया है कि भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग का अन्तिम परिणाम समत्व है और जब समत्व जीवन में प्रकट हो जाता है, तो उसके कई सुंदर परिणाम देखने को मिलते हैं। १. सुखम्रान्ति का निराकरण - संसार में सभी प्राणी सुख को चाहते हैं
और उसे प्राप्त करने के लिए रात दिन प्रयत्न करते हैं, फिर भी पूर्णरूप से सुखी नहीं होते हैं। जैसे कस्तूरीमृग अपनी ही नाभि में रही हुई कस्तूरी को ढूंढने के
६२२. नमिनाथजिनस्तवन-२१, आनंदघन चौबीसी
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