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________________ ३२८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री 'उवेह एणं बहिया य लोगं से सव्व लोगम्मि जे केई विण्णू।' अपने धर्म के विपरीत रहने वाले व्यक्ति के प्रति भी उपेक्षा भाव रखो, क्योंकि जो कोई विरोधी के प्रति उपेक्षा-तटस्थता रखता है, उसके कारण उद्विग्न नहीं होता है, वह विश्व के समस्त विद्वानों में सिरमौर है। माध्यस्थभाव धारण किए बिना माध्यस्थभाव नहीं रह सकता है। इस प्रकार दोनों अन्योन्याश्रित हैं। उ. यशोवियजी ने ज्ञानसार में कहा है नयेषु-स्वार्थ सत्येषु, मोघेषु पर चालने। समशीलं मनो यस्य, स मध्यस्थो महामुनिः ।। ३।। अपने-अपने अर्थ में सत्य और दूसरों को मिथ्या बताने में निष्फल- ऐसे सर्व नयों में जिसका मन सम स्वभाव वाला है, वह महामुनि मध्यस्थ है। तात्पर्य यह है कि अपेक्षा दृष्टि से सभी नयों को समान रूप से स्वीकार करना माध्यस्थ भाव है। अभिधान राजेन्द्रकोष में कहा गया है कि- द्वेष के अभावरूप किसी भी दर्शन पर बिना पक्षपात की निर्मलदृष्टि ही मध्यस्थदृष्टि है। मध्यस्थ्यभाव को उदासीनता, औदासीन्य उपेक्षाभाव भी कह सकते हैं। इस प्रकार माध्यस्थभाव समता का ही एक अंग है। साम्ययोग और सामायिक सामायिक तनावग्रस्त चित्त को समत्व की ओर ले जाने का एक प्रयास है। इससे समस्त सावद्ययोगों (पापक्रियाओं) का त्याग होता है। सामायिक शब्द की रचना तीन शब्दों से हुई है- सम्+आय+इका आय का अर्थ लाभ होना, जिसमें समभाव का लाभ हो, वह सामायिक कहलाती है। समत्वभाव सामायिक का नवनीत है। सामायिक साधन है और समता या साम्यभाव साध्य है। समत्व सामायिक का प्राण है। अध्यात्मोपनिषद् मे उ. यशोविजयजी सामायिक का सार समता को बताते हुए कहते हैं कि "समत्वभाव के बिना, ममत्वसहित की गई सामायिक को मैं मायावी मानता हूँ। समभावरूप सद्गुणों का लाभ हो, तो ही सामायिक शुद्ध होती है।" जिस प्रकार छत्र और चंवर धारण करने से कोई राजा नहीं हो जाता, उसी प्रकार बाह्यलिंग धारण करने से कोई साधक नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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