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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३२७
माध्यस्थभाव को समता का ही एक पहलू कह सकते हैं। सामान्यतया दूसरों के दोषों की उपेक्षा करना माध्यस्थभाव है। पापी और अविनीत जीवों के प्रति उपेक्षा रखना, उन पर द्वेष नहीं करना माध्यस्थभाव है। माध्यस्थभाव धारण करने से निन्दा, तुच्छता, उत्सुकता आदि दोषों का त्याग हो जाता है। माध्यस्थभाव भी समता के बिना सम्भव नहीं है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार ६१२ में कहा है कि मनुष्य अपने-अपने कमों में परवश बना हुआ है और अपने अपने कर्म के फल को भोगने वाला है-ऐसा जानकर मध्यस्थपुरुष राग और द्वेष नहीं करता है, अर्थात् माध्यस्थ भाव राग और द्वेष से रहित अवस्था है। अभिधानराजेन्द्रकोष६१३ में कहा गया है
"मध्य रागद्वेषयोरन्तराले तिष्ठतीति मध्यस्थः' जो राग और द्वेष के मध्य में रहता है, अर्थात् न राग करता है और न द्वेष करता है, वह मध्यस्थ कहलाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में माध्यस्थभावना को परिभाषित करते हुए कहा है कि, अविवेकी, क्रूरकर्म करने वाले, देव-गुरु-धर्म के निन्दक, आत्मप्रशंसा में रत मनुष्यों के प्रति किसी भी प्रकार का दुर्विचार न लाते हुए समभाव रखना ही माध्यस्थभावना है। योगशतक, तत्त्वार्थसत्र आदि में कहा गया है कि दुर्जनों और अविनयी पुरुषों पर माध्यस्थभाव रखें। माध्यस्थ का अभिप्राय उनके कल्याण की कामना करते हुए उनकी अप्रिय वृत्तियों के प्रति उपेक्षा भाव रखना, तटस्थ रहना है। उपाध्याय विनयविजयजी भी कहते है कि माध्यस्थ भावना सांसारिक प्राणियों के विश्रांति लेने का स्थान है। सभी शास्त्रों का सार है। किसी प्राणी को हितोपदेश देने पर भी अगर वह ग्रहण नहीं करे और उसकी उपेक्षा करे, उपकार के स्थान पर अपकार करे, तो भी उस पर क्रोध नहीं करना माध्यस्थभाव है।
— माध्यस्थभाव धारण करने से पर सम्बन्धी व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त होकर समतारूपी सुख का अनुभव कर सकते हैं।
आचारांगसूत्र में कहा गया है
E१२
स्वस्वकर्मकृतावेशाः, स्वस्वकर्मभुजोनयः नरागं नापि च द्वेषं, मध्यस्थस्तेषु गच्छति।।४।।-माध्यस्थाष्टक, १६, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी अभिधानराजेन्द्रकोष भाग ६, पृ. ६४ - आचार्य राजेन्द्रसूरि
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