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३२६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
निर्वेद - समता का तृतीय स्तर या सम्यक्त्व का तीसरा लक्षण निर्वेद है। निर्वेद शब्द के विभिन्न अर्थ हैं- १. बृहद्वृत्ति के अनुसार सांसारिक विषयों के त्याग की भावना २. मोक्षप्राभृत के अनुसार- संसार, शरीर और भोगो से विरक्ति ३. पंचाध्यायी के अनुसार- समस्त अभिलाषाओं का त्यागा ६०६ .
डॉ. सागरमल जैन६१० के अनुसार निर्वेद, अर्थात् उदासीनता वैराग्य, अनासक्ति। निर्वेद के अभाव में साधना के मार्ग पर चलना सम्भव नहीं है। जब तक संसार से वैराग्य भाव प्रकट नहीं होता हैं, तब तक समत्व भी नहीं टिक पाता है, अतः समता का तीसरा स्तर निर्वेद कहा है। निर्वेद का एक अर्थ वेदन का अभाव भी कर सकते हैं, जिसमें कषायों का वेदन न हो, अर्थात् शत्रु के प्रति मन में भी कोई प्रतिक्रिया न हो, वह निर्वेद कहलाता है।
उत्तराध्ययन में निर्वेद का फल बताते हुए कहा गया है कि निर्वेद से समस्त कामभोगों और सांसारिक विषयों से विरक्ति हो जाती है और विरक्त होने पर आरम्भ का परित्याग हो जाएगा तथा आरंभ के परित्याग से चतुर्गति जन्म-मरणरूप संसार के मार्ग का विच्छेद होने के साथ ही मोक्षमार्ग की प्राप्ति हो जाती है।
इस प्रकार श्रद्धा के मजबूत होने पर (संवेग) तथा संसार से तीव्र वैराग्य होने पर (निर्वेद) साम्यभाव की पूर्णता प्रकट होती है।
समता और माध्यस्थभाव अध्यात्मज्ञान का प्रथम बीज समता है। सभी संयोगों में मन को एक जैसा रखना, चाहे कैसे भी प्रसंग आएं, तो भी चंचलवृत्ति धारण नहीं करना, शत्रु के प्रति द्वेष और मित्र के प्रति राग धारण नहीं करना समता है।
६०६. (अ) निदेन - सामान्यतः संसार विषयेण कदाऽसौत्यक्ष्यामीत्येवंरुपेण -बृहद्वृत्ति ५७८
(ब) निर्वेदः संसार शरीर -भोग विरागतः -मोक्षप्राभृत ८२ टीका
(स) त्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदोः। -पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध ४४३ __ जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. ५६ डॉ. सागरमल
जैन सम्यक्त्वपराक्रम -द्वितीयसूत्रः निर्वेद -अध्ययन २६ वाँ -उत्तराध्ययन
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