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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३२५
देव, गुरु, धर्म एवं तत्त्वों पर निश्चल अनुराग संवेग है। ६०५ सर्वार्थ सिद्धि ६०६ में कहा गया है- “नारक-तिर्यंच मनुष्य-देवभवरूपात् संसार दुःखात् नित्यभीरुतः संवेगः,” अर्थात् चारों गतिरूप संसार के दुःखों से नित्य भयभीत रहना संवेग है।
डॉ. सागरमल जैन ६०७ लिखते हैं कि सम शब्द आत्मा का भी वाचक है। इस प्रकार इसका अर्थ होगा- आत्मा की ओर गति। सामान्य अर्थ में संवेग शब्द अनुभूति के लिए भी प्रयुक्त होता है। यहाँ इसका तात्पर्य होगा- आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति। मनोविज्ञान में आकांक्षा की तीव्रतम अवस्था को भी संवेग कहा जाता है। इस प्रसंग में इसका अर्थ होगा सत्याभीप्सा, अर्थात् सत्य को जानने की तीव्रतम आकांक्षा।
जब ममता का नाश हो जाता है और समत्वभाव प्रकट होता है, तब सत्य को जानने की जिज्ञासा भी बढ़ जाती है।
उत्तराध्ययन६०८ में संवेग के फल बताए गए हैं, जो इस प्रकार हैं१. संवेग से उत्कृष्ट धर्मश्रद्धा २. अनन्तानुबंधी कषायों का क्षय ३. परम धर्मश्रद्धा से मोक्षाभिलाषा या संसारदुःखभीख्ता ४. नूतन-कर्मबन्धनिरोध ५. मिथ्यात्त्वक्षय तथा निरतिचार क्षायिक सम्यग्दर्शन की आराधना ६. दर्शनविशुद्धि से निर्मल भव्यात्मा को या तो उसी भव में मोक्ष या
तीसरे भव में अवश्य मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
६०५. (अ) वृहद्वृत्तिपत्र ५७७
(ब) दशवैकालिक अ. १ टीका
सर्वार्थसिद्धि ६/२४ ६०७. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. ५८ डॉ. सागरमल
जैन
सम्यक्त्वपराक्रम २६/१
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