________________
३२४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
अर्थात् वस्तुतः 'शम' नही हैं। ये परिस्थिति विशेष पर
आधारित है। २. भावशम - मिथ्यात्व को दूर कर यथार्थ ज्ञानपूर्वक चारित्रमोह के उदय के अभाव से क्षमादि गुण में परिणमन करना भावशम है।
वचनक्षमा, अर्थात् आगमवचन यानी परमात्मा की आज्ञा को प्रमुख करके जो समभाव धारण करे तथा धर्मक्षमा, अर्थात कठोर उपसर्ग करने वाले पर भी सहज स्वधर्मस्वरूप करुणा- ये दोनों क्षमा 'भावशम' कहलाती हैं।
अभिधानराजेन्द्रकोष६०४ में लौकिकशम और लोकोत्तरशम- इस प्रकार भी दो भेद किए गए हैं, जिसमें वेदांतवादी का शम लौकिकशम और जैनप्रवचनानुसार शुद्धस्वरूप में रमणता- वह लोकोत्तरशम कहा गया है।
___ सप्तनय के अनुसार शम - अभिधानराजेन्द्रकोष में कहा गया है कि प्रथम के चार नय, अर्थात् नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय के अनुसार स्वरूप गुणों में परिणमन करने के कारण मन-वचन-काया का संकोच, कर्म के फल का चिंतन, तत्त्वज्ञान, बारहभावना आदि शम हैं।
शब्दनय के अनुसार क्षयोपशमभाव में जो क्षमादि है, वह शम है।
समभिरूढ़नयानुसार क्षपकश्रेणी में सूक्ष्मकषायवाले को क्रोधादि का जो उपशम होता है, वह शम कहलाता है। एवंभूतनय के अनुसार क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में कषायों का सम्पूर्ण क्षय होना शम है।
इस प्रकार शम-परिणति आत्मा का मूलस्वभाव है। समता का द्वितीय स्तर संवेग -
संवेग शब्द का शाब्दिक विश्लेषण करते हैं, तो उसका अर्थ इस प्रकार निकलता है- सम्+वेग, सम्-सम्यक्, वेग-गति अर्थात् सम्यक् गति।
विभिन्न टीकाओं में संवेग शब्द का अर्थ निम्नलिखित किया गया हैसम्यक् उद्वेग-मोक्ष के प्रति उत्कण्ठा, अभिलाषा या संसार के दुःखों से भयभीत होकर मोक्षसुख की अभिलाषा करना।
६०५.
अभिधानराजेन्द्रकोष भा. ७, पृ. ३६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org