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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३२३
अभिधानराजेन्द्रकोष ६०१ में 'शम' की व्याख्या इस प्रकार की गई है'क्रोधकण्डूविषयतृष्णोपशमः शमः इति', दूसरी व्याख्या- 'अनन्तानुबन्धिनां कषायाणामनुदयः' -क्रोधादि कषायों और विषयों का उपशम ही शम कहलाता है। आत्मस्वभाव में रमण करना, आत्मस्वभाव का आस्वादी होना 'शम' कहलाता है। आनंदघनजी ने शान्तिनाथ भगवान् ६०२ के स्तवन में जो ज्ञानयोगी का चारित्र दर्शाया है, उसमें सम के सम्पूर्ण स्वरूप की व्याख्या हो जाती है। वे लिखते हैं
मान अपमान चित्त सम गणे, समगणे कनक पाषाण रे वंदक निंदक सम गणे रे, ईस्यो होय तु जाण रे - ६ सर्व जगजंतु ने सम गणे, सम गणे तृण मणि भाव रे । मुक्ति संसार बिहु सम गणे, मुणे भवजलनिधि नाव रे - १०
मान, अपमान, निंदा, स्तुति आदि को जो समान मानता है, जो मित्र, शत्रु आदि पर समभाव धारण करता है, इस प्रकार का उत्कृष्ट समभाव संसाररूपी समुद्र को तैरने के लिए नाव के समान है।
संस्कृत के तीसरे रूप 'श्रम' का अर्थ होगा 'सम्यक् प्रयास' या पुरुषार्थ
अभिधानराजेन्द्रकोष६०३ में शम के दो प्रकार बताए गए हैं - १. द्रव्यशम और २. भावशमा
१. द्रव्यशम - परिणाम में असमाधि हो और प्रवृत्ति का संकोच किया हो, तो वह द्रव्यशम कहलाता है। जैसे- उपकारक्षमा, अपकारक्षमा और विपाकक्षमा में क्रोध का जो उपशम किया जाता है, वह द्रव्यशम कहलाता है।
उपकारी होने से उसके दुर्वचन सहन करना उपकारीक्षमा अपकार के भय से बलिष्ठ व्यक्ति को दुर्वचन न कहकर चुप
रहना अपकारक्षमा तथा ३. नरकादि दुःखद विपाक या यहीं अनर्थ- परम्परा को देखकर
चुप रहना विपाकक्षमा कहलाती है। ये तीनों ही द्रव्य-शम हैं,
६०१.
६०२.
अभिधानराजेन्द्रकोष, ७/३६६ -आचार्य राजेन्द्रसूरि आनन्दघनचौबीसी-स्त. १६- संत आनंदघन अभिधानराजेन्द्रकोष - ७/३६६
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