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३२२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
या चित्त का संतुलन बनाए रखना हैं। ज्ञानसार में कहा गया है- “दुखं प्राप्य न दीनः स्यात्, सुखं प्राप्य च विस्मितः" सम युक्त साधु दुःख प्राप्त होने पर दीन नहीं होते हैं, सुख पाने पर विस्मित नहीं होते हैं।"५६६ ।।
अभिधानराजेन्द्रकोष५६७ में सम की व्याख्या करते हुए लिखा गया है'प्रेक्षणीय तुल्यतृणमणिमुक्ता रूपे।'
यही बात गीता में कहीं गई है- 'समलोष्टाश्मकान्वनः'
पत्थर हो या स्वर्ण, तृण हो या मणि, सभी पर जिसके समान भाव हों, अर्थात् स्वर्ण में आसक्ति न हो और पत्थर पर द्वेष न हो। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी समय किसी भी परिस्थिति में, किसी भी निमित्त से भेदभाव नहीं आए, वह स्थिति सम कहलाती है। स्थानांगसूत्र में सम की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा गया है
"मध्यस्थे निन्दायां पूजायां च तुल्ये" । जो निन्दा होने पर या प्रशंसा होने पर सम स्थिति में रहता है, अर्थात् निन्दा करने वाले पर द्वेष नहीं करता है, प्रशंसा करने वाले से राग नहीं करता है, वह समबुद्धि वाला कहलाता है।
___ संस्कृत 'शम' के रूप का अर्थ है-शांत करना, अर्थात् कषायाग्नि या वासनाओ को शांत करना। उ. यशोविजयजी ने 'शम' की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि विकल्परूप विषयों से निवृत्त होकर निरन्तर आत्मा के शुद्ध स्वभाव का आलंबन जिसे है-ऐसा ज्ञान का परिणाम 'शम' कहलाता है। ६०० ज्ञान की पूर्ण अवस्था 'शम' है।
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जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन - भाग २, पृ. ५८, डॉ. सागरमल जैन अभिधानराजेन्द्रकोष -भाग ७, पेज ३६८ कर्मविपाकचिन्तन, २१, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय ६, श्लोक ८ स्थानांगसूत्र, ८, ठा. उ. उ. विकल्पविषयोत्तीर्णः स्वभावलम्बनः सदा ज्ञानस्य परिपाको यः स शमः परिकीर्तितः।।१।। -शमाष्टक ६, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी
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