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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३२१ समता के तीन स्तर : सम, संवेग, निर्वेद ममत्व के विभिन्न रूपों को जानने के बाद अब हम समता के स्तरों का वर्णन करेंगे। समता के तीन स्तर हैं : सम, संवेग और निर्वेद। सम - ‘सम्' सम्यक्त्व का प्रथम लक्षण भी है। प्राकृत भाषा के सम् शब्द के संस्कृत भाषा में तीन रूप होते हैं- १. सम २. शम ३. श्रम। डॉ. सागरमल जैन ५६१ ने सम शब्द के दो अर्थ बताए हैं। पहले अर्थ में यह समाननुभूति या तुल्यता बोध है, अर्थात् सभी प्राणियों को अपने समान समझना। इस अर्थ में यह 'आत्मवतसर्वभूतेषु' के सिद्धान्त की स्थापना करता है, जो अहिंसा का आधार है। दूसरे अर्थ में इसे चित्तवृत्ति का समभाव कहा जा सकता है। उ. यशोविजयजी६२ ने ज्ञानसार में सम से युक्त साधक का वर्णन करते हुए लिखा है कि जो कर्म की विषमता से उत्पन्न हुए वर्णाश्रम आदि के भेद को गौण करते हुए, परमात्मा के अंश द्वारा बने एक स्वरूप वाले जगत को अपनी आत्मा से अभिन्न देखता है, वह उपशम वाला साधक अवश्य मोक्षगामी होता है। अभिधानराजेन्द्रकोष ५६३ में सम की व्याख्या करते हुए लिखा गया है"समो रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति।" राग-द्वेष से रहित सभी प्राणियों पर आत्मवत्दृष्टि सम है। भगवद्गीता५६४ के पाँचवें अध्याय में समदृष्टि वाले साधक कैसे होते हैं, उसका वर्णन करते हुए लिखा गया है कि आत्मज्ञानी, विद्याविनय से सम्पन्न ब्राह्मण में, गाय में, हाथी में, कुत्ते में तथा चांडाल में भी समदृष्टि वाले होते हैं। यह समताभाव की चरम उपलब्धि है। दूसरे अर्थ में इसे चित्तवृत्ति का समभाव कहा जा सकता है,५६५ जो जय-पराजय, मान-अपमान, सुख और दुःख-दोनों ही स्थितियों में समभाव रखना जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन -भाग २, पृ. ५८, डॉ. सागरमल जैन अनिच्छन् कर्म-वैषम्यं ब्रह्मांशेन शमं जगत्। आत्मभेदेन यः पश्येदसौ मोक्षं गमी शमी ।।२।। - शमाष्टक, ६, ज्ञानसार अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग ७, पृ. ३६८ विद्याविनय संपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः ।।१८।। श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५ श्लोक १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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