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३२०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
को उत्पन्न करने वाले इस शरीर के पोषण में मोहान्ध रहना, यह आश्चर्य
है।"
. शरीर का पोषण करना कृतन पर उपकार करने जैसा है। यह शरीर अशुचि का घर है। शांतसुधारस में कहा गया है- “जिस तरह लहसुन को कर्पूर, बरास आदि सुगंधित पदार्थों से वासित किया जाए, तो भी लहसुन अपनी दुर्गंध को नहीं छोड़ती। दुर्जनों पर जिन्दगी भर उपकार करने पर भी उनमें सज्जनता नहीं आती है, ठीक उसी प्रकार इस शरीर को कितना ही विभूषित किया जाए वह अपनी स्वाभाविक दुर्गध को नहीं छोड़ता है।"५६६
यह शरीर किराए का घर है, घर का घर नहीं है, इसलिए शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करना ही उचित है, लेकिन शरीर की उपेक्षा भी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि कहा गया है
“शरीरमाद्यं खलु धर्मसाथनम्" समत्वमार्ग पर चलते हुए प्राणी के लिए शरीर धर्म का प्रथम साधन हो सकता है। उसी प्रकार
“शरीरमाद्यं खलु पापसाधनम्" __ममत्व के मार्ग पर चलते हुए प्राणी के लिए शरीर पाप का प्रथम साधन हो सकता है।
उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में ममतारूपी व्याधि का उच्छेद करने के लिए ज्ञानरूपी औषधि बताई है। जिस प्रकार रस्सी के ज्ञान से सर्प का भय नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार भेदज्ञान से स्वत्व और स्वकीयत्व (मैं और मेरा) रूपी भ्रांति के हेतुरूप अहंता और ममता का नाश होता है।५६०
ममता के नाश होने पर साधक को समत्व की प्राप्ति हो जाती है।
५८८.
५८६. ५६०
अध्यात्मतत्त्वालोक, १/६६ अशुचिभावना ६/३, शांतसुधारस, उ. विनयविजयजी इत्येवं ममताव्याधि५ वर्द्धमानं प्रतिक्षणम्। जनः शक्नोति नोच्छेतुम् विना ज्ञानमहौषधम् ।।८।। अहंताममते स्वत्वस्वीयत्वभ्रमहेतुके भेदज्ञानात्पलायेते रज्जुज्ञानादिवाहिभीः ।।२२। ममत्वत्यागाधिकार, ८, अध्यात्मसार
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