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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३१६
चींटियों द्वारा एकत्र किया गया अनाज, मधुमक्खियों द्वारा संग्रह किया हुआ शहद और कृपण पुरुषों द्वारा एकत्र किए हुए धन का दूसरों के द्वारा ही भोग किया जाता है, अतः परभव में दुर्गति प्रदान करने वाले, निरंतर भयभीत रखने वाले और धर्म से विमुख करने वाला विषमता की ओर ले जाने वाले धन का मोहत्याग करके ही समभाव की साधना में प्रगति कर सकते हैं।
देहममत्व - सदा साथ रहने वाली काया के साथ जीव का विशेष ममत्व होता है। कंचन, कामिनी, कुटुंब के ममत्व का त्याग करना सरल है, किन्तु सभी के मध्य केन्द्र में रही हुई काया के स्वार्थ को, देह के ममत्व को छोड़ना आसान नहीं है। हम जीवनभर शरीर के इर्दगिर्द ही घूमते रहते हैं। शारीरिक सुखों को बटोरने में ही हमारी जिन्दगी का समस्त पुरुषार्थ लगा रहता है। काया जीव का जबरदस्त बंधन है। वैराग्यशतक८६ में कहा गया है कि संसार में इस जीव ने प्रत्येक भव में जिन शरीरों को छोड़ा उन्हें अगर एकत्र किया जाए, तो उन शरीरों की संख्या इतनी होगी कि अनंत सागरों को भर देने पर भी वे बचे रह जाएंगे। शरीर में रहकर सुख प्राप्त करना असंभव है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है कि ममता में अंध बनी हुई बाह्यदृष्टि वाला शरीर को सौन्दर्य से युक्त देखता है, जबकि तत्त्वदृष्टि वाला उसी शरीर को कौओं तथा कुत्तों के खाने योग्य कृमिसमूह से भरा हुआ देखता है।५८०
सनत्कुमारचक्रवर्ती को शरीर के प्रति अत्याधिक ममत्व था। जब उनका मोह पराकाष्ठा पर पहुंचा, तब उनका शरीर विषमय हो गया। इस शरीर के ममत्व के कारण व्यक्ति अनेक कष्टों को सहन करता है। इसके पोषण के लिए अनेक पाप करता है।
अध्यात्मतत्त्वलोक में कहा गया है- “एक ही बार जिसने हमें कष्ट पहुँचाया हो, तो उससे हम दूर ही रहते हैं, तो फिर अनादिकाल से अनेक कष्टों
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जीवेण भवे भवे, मिलियाइ देहाइ जाइ संसारे। ताणं न सागरेहिं, कीरइ संखा अणंतेहि।।४७ वैराग्यशतक लावण्यलहरीपुण्यं, वपुः पश्यति बाह्यदृक् ।। तत्त्वदृष्टिः श्वकाकानां, भक्ष्यं कृमिकुलाकुलम ।।५।तत्त्वदृष्टि, १६, ज्ञानसार
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