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________________ ३१८/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री कितने ही आरंभ-समारंभ करता है और भयंकर कर्म का उपार्जन करता है । ८४ कई लोग तो लक्ष्मी के दास होते हैं, न स्वयं खाते हैं, न खिलाते हैं, न दान देते हैं, मात्र लक्ष्मी की तिजोरी पर पहरा देते है । मम्मण सेठ के पास सम्पत्ति के भण्डार थे, फिर भी वह तेल और चावल खाता था और धन प्राप्ति के लिए बहुत कष्टों को सहन करता था। रत्नों से जड़ित दो बैलों की जोड़ी बनाने में ही उसने सारा जीवन व्यतीत कर दिया। उसकी जीवनभर धन के प्रति गहरी आसक्ति बनी रही। अध्यात्मकल्पद्रुम में कहा गया है कि यह पैसे मेरे - है - इस प्रकार के विचार से मन को थोड़े समय आनंद प्राप्त होता है, किन्तु आरंभ के पाप से लंबे समय तक दुर्गति में भयंकर दुःख प्राप्त होता है । ८५ धर्मदासगणी द्वारा कहा गया है कि जिस सुख के पीछे दुःख हो उसे सुख नहीं कह सकते हैं। अनुभवियों का कहना है कि सम्पत्ति उपाधिरूप ही होती है। सुख तो संतोष में ही है। हर स्थिति में मन को प्रसन्न रखना - यही सुख प्राप्ति का उपाय है। राजा, चक्रवर्ती, बड़े-बड़े धनवानों को भी पैसा मृत्यु के मुख से बचा न पाया। धनवान् व्यक्ति भी जब असाध्य व्याधि से ग्रस्त हो जाता है, वह तड़पता है, परंतु पैसा उसे बचा नहीं सकता है; फिर भी धन के ममत्व में फसा हुआ व्यक्ति धर्म को छोड़कर धन की पूजा करता है। धन के प्रति ममत्व अधिक होता है या स्त्री के प्रति यह कहना बहुत मुश्किल है, फिर भी हम अनुभव करते हैं कि प्रायः स्त्री पर मोह युवा अवस्था में शुरु होता है और कुछ वर्षों में कम हो जाता है। जितने समय स्त्री पर मोह रहता है, उतने समय उसका रस (Intensity) अधिक होता है, जबकि धन के प्रति मोह तो प्रत्येक दिन बढ़ता जाता है । वृद्धावस्था में तो यह पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है और जीवन के अन्तिम समय तक भी छूटता नहीं है। दुर्ध्यान करते हुए ही वह मृत्यु के मुख में चला जाता है। धन न किसी के साथ गया है और न ही जाने वाला है । नीतिशास्त्र में कहा गया है ५८४ ५८ कीटिकासन्वितं धान्यं, माक्षिका सन्वितं मधु । कृपणैः सन्चितं वित्तं परैरेवोपभुज्यते । । " ममत्वेनैव निःशंकमारंभादौ प्रवर्तते । कालाकालसमुत्थायी धनलोभेन धावति । । ६ । । ममत्वत्यागाधिकार, ८, अध्यात्मसार ममत्वमात्रेण मनः प्रसाद-सुखं धनैरल्पकमल्पकालम् । आरम्भपापैः सुचिरं तु दुःखं, स्पाद्दुर्गतौ दारुणमित्यवेहि ।। ३ । ।-अध्यात्मकल्पद्रुम-३/३, मुनिसुंदरसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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