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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३१७
है। माता धूल से भरे हुए एवं विष्ठा से युक्त पुत्र को भी गोदी में ले लेती है।५८१ अध्यात्मकल्पद्रुम में कहा गया है- “पुत्र-पुत्रियों को देखकर हर्ष से पागल मत बन, क्योंकि मोहराजा नाम के तेरे शत्रु ने नरकरूप जेल में डालने की इच्छा से पुत्र-पुत्री रूप लोहे की बेड़ी द्वारा मजबूत बांध दिया है।" ५८२ यही बात वैराग्यशतक में भी कहीं गई है है- “जीव! तू पुत्र-स्त्री आदि मेरे सुख के कारण हैं, ऐसा तू मत मान, क्योंकि संसार में भ्रमण करते हुए जीव को पुत्र और स्त्री उल्टे दृढ़बंधनरूप हैं।" ५८३ पुत्रबंधन से सारी स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। आर्द्रकुमार वापस दीक्षा लेने के लिए तैयार हुए, किन्तु उनके छोटे से पुत्र ने सूत के धागे पैरों पर लपेट दिए। दर्शनमात्र से हाथी की सांकल तोड़ने वाले आर्द्रकुमार पुत्र के मोहवश कच्चे धागों का बंधन नहीं तोड़ सके और पुनः बारह वर्ष तक गृहस्थजीवन में रहे। संसार त्याग करने वाले के लिए स्त्री-पुत्र कितने बंधनरूप होते हैं, यह सब जानते हैं। इसके अलावा पुत्रादि भी व्यक्ति का दुःखों से रक्षण करने में समर्थ नहीं हैं। उसके उपकार का बदला वे चुकाएंगे, इसमें भी संदेह रहता है, क्योंकि कई पुत्र पिता के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, कई पुत्र कुपुत्र निकलते हैं, जो माता-पिता की समाधि (चित्तशांति) को पूरी तरह भंग कर देते हैं। पुत्र कोणिक ने श्रेणिक की कैसी दुर्दशा की, यह बात इतिहास प्रसिद्ध है। बुढ़ापे में पुत्र घर में माता-पिता को रखना नहीं चाहते, इसलिए आज कई जगह वृद्धाश्रम खुल गए हैं। इस जीव ने स्त्री, पति, पुत्र, माता, पिता आदि के संबंध कई जीवों के साथ अनंत बार किए हैं। इस प्रकार विचार करके परपदार्थों के प्रति ममत्व का त्याग करके आत्मसाधना करते हुए समत्वयोग को प्राप्त कर सकते हैं।
धनममत्व - स्त्री और पुत्र के समान ही धन का ममत्व भी समाधि को भंग करता है, सद्गति का नाश करता है, दुर्गति के द्वार खोलता है। ममता का यह रूप कितना मोहक है। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में कहा है कि धन के लालच में मनुष्य दिन-रात दौड़ा-दौड़ करता है। ममता में अंध बना हुआ
५४'. लालयन् बालकं तातेत्येवं ब्रुते ममत्ववान् ।
वेत्ति च श्लेष्मणा पूर्णामंगुलीममृतांचिताम् ।।१८।। पंकामपि निःशंका सुतमंकान्न मुंचति। तदमेध्येऽपि मेध्यत्वं जानात्यंबा ममत्वतः।।१६। ममत्वत्यागाधिकार, अध्यात्मसार अपव्यममत्वभोचनाधिकारः, तृतीय, ३/१, अध्यात्मकल्पद्रुम मा जाणसिजीव तुमं पुत्तकलत्ताई मन्झ सुहहेऊ। निउणं बंधणमेयं, संसारे संसंरताणं ।।२१।।-वैराग्यशतक
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