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________________ ३१६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री साथ आए। मल्लिकुंवरी ने उन्हें प्रतिबोध देने के लिए स्वशरीर-प्रमाण एक पुतली बनवाई थी और उसमें उत्तम खाने के पदार्थ रोज डालती थी। उसके रूप पर मुग्ध हुए राजाओं के समक्ष जैसे ही पुतली के ढक्कन को खोला गया, चारों ओर दुर्गध फैल गई। तब सभी को ख्याल आया कि शरीर मांस, रुधिर, मल, मूत्र आदि से भरा है, केवल इन अपवित्र पदार्थों के ऊपर चमड़ी चढ़ी हुई है, जिसे मोह में अंधा बना हुआ जीव देखता नहीं है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है कि बाह्यदृष्टि से देखने पर स्त्री अमृतधार से युक्त सौन्दर्यवाली दिखाई देती है, किन्तु तत्त्वदृष्टि वाले को वही स्त्री प्रत्यक्षतः विष्ठा और मूत्र के भण्डार के रूप में प्रतीत होती है। ७६ उपमितिभवप्रपंच कथा में सिद्धर्षि गणि ने अन्य सभी कमों में मोहनीयकर्म को राजा की उपमा दी है। ममत्व को जीतना बहुत कठिन है। सारी दुनिया को कंपाने वाला रावण सीता को प्राप्त करने के लिए उसका दास बनने के लिए तैयार हो गया और उसके लिए अपने प्राण तक दे दिए। इस प्रकार पुरुष पतंगे की तरह स्त्री के रूप पर मोहित होकर अपनी दुर्गति को आमंत्रित करता है। अध्यात्मकल्पद्रुम ८° में स्त्री को भवसमुद्र में डूबते प्राणी के लिए गले में बंधे पत्थर की उपमा दी है। स्त्री के ममत्व में बंधने से अनंत संसार की वृद्धि हो जाती है। जिस प्रकार पुरुष भी बंधनरूप है, अतः एक-दूसरे के प्रति ममत्व का त्याग करके ही व्यक्ति समत्व के मार्ग में आगे बढ़ सकता है। पुत्रममत्व - अध्यात्ममार्ग में आगे बढ़ते हुए जीव के लिए समता की आवश्यकता है और समता को प्राप्त करने के लिए ममत्व का त्याग प्रथम आवश्यकता है। स्त्री के बाद प्राणी के लिए पुत्र का ममत्व छोड़ना बहुत कठिन होता है। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में कहा है कि माता-पिता पुत्र के ममत्व में इतने अंधे हो जाते हैं कि पुत्र को खिलाते समय स्वयं बालक बन जाते हैं। व्यक्ति बालक के श्लेष्म से भरी हुई अंगुली को भी अमृत के समान समझता ४७१ बाह्यदृष्टेः सुधासारघटिता भाति सुन्दरी। तत्त्वदृष्टेस्तु सा साक्षाद्विण्मूत्रपिठरोदरी ।।४।। -तत्त्वदृष्टि, १६, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी किं न वेत्सि पतता भववाद्धौं, तां नृणां खलु शिलां गलबद्धाः।।१।। __-स्त्रीममत्त्वमोचनाधिकार, २, अध्यात्मकलपद्रुम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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