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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३१५ कहा है कि निर्मम पुरुषों का वैराग्य ही स्थिरता प्राप्त कर सकता है, इसलिए प्राज्ञ पुरुषों को अनेक अनर्थों को जन्म देने वाली ममता का त्याग कर देना चाहिए । ५७५ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है जैसे सर्प प्रतिवर्ष शरीर पर स्थित केंचुली का त्याग करके अन्यत्र चला जाता है, केंचुली के प्रति उसके मन में थोड़ा भी ममत्व नहीं होता है, उसी प्रकार आत्मकल्याण की साधना करते हुए साधक भी घर, कुटुम्ब, कुल, वस्त्रालंकार आदि के प्रति ममत्व को त्याग कर संयम अंगीकार कर लेता है। संयम लेने के बाद भी अपने संयम के उपकरणों के प्रति या अपने व्रत, तप आदि के प्रति भी ममता जाग्रत हो सकती है, अतः सजगता आवश्यक है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “ मुनि कष्टों को सहन कर अनेक आत्मिक गुणों को प्रकट करता है, किन्तु ममतारूपी राक्षसी उन सब गुणों को एक झपाटे में भक्षण कर जाती है। ,,५७७ ममता का स्वरूप मायावी और कुटिल है । ममतारूपी बीज में से ही इस सब सांसारिक प्रपंच की कल्पना खड़ी होती है, फिर चाहे, वह प्रपंच वस्तुरूप हो या स्त्री, पुत्र आदि स्वजनरूप हो । ५७५ ममत्तं छिन्दए ता महानागोव्व कंचुयं । । * स्त्रीममत्व ममत्व के विविध रूपों में भी स्त्री के प्रति मोह विशेष बलवान् होता है। स्त्री की देहरचना और स्त्री की प्रकृति में पुरुष को मोहांध बनाने की शक्ति रही हुई है। उ. यशोविजयजी कहते है कि ममता के वश हुआ पुरुष पत्नी को स्वयं से अभिन्न मानता है और अतिशय प्रेम के कारण स्वयं के प्राणों से भी बढ़कर उसे मानता है तथा आनंदित होता है । ७८ स्त्रियों के लिए संसार में कितने ही युद्ध लड़े गए। मल्लिकुंवरी से विवाह के लिए छ: राजा एक ५७६ ५७७ ५७८ • ५७६ - Jain Education International निर्ममस्यैव वैराग्यं स्थिरत्वमवगाहते । परित्यजेत्ततः प्राज्ञो ममतामत्यनर्थदाम् ।।१।। - ममत्वत्यागाधिकार, ८, अध्यात्मसार उत्तराध्ययनसूत्र १६/८७ कष्टेन हि गुणग्रामं प्रगुणी कुरुते मुनिः ममताराक्षसी सर्व भक्षयत्येकहेलया । । ३ । । - ममत्वत्यागाधिकार, ८, अध्यात्मसार प्राणानभिन्नताध्यानात् प्रेमभूम्ना ततोऽधिकाम् । प्राणापहां प्रियां मत्वा मोदते ममतावशः ||१३|| - ममत्वत्यागाधिकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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