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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २७ काशी में न्यायविशारद तथा तार्किक शिरोमणि के विरुद से सुशोभित उन दिनों काशी के समान कश्मीर विद्या का बड़ा स्थान माना जाता था। एक दिन कश्मीर से एक सन्यासी बहुत स्थानों पर वाद में विजय प्राप्त करके काशी में आया। उसने काशी में वाद के लिए घोषणा की, परंतु इस समर्थ पण्डित से वाद-विवाद करने का किसी का भी साहस नहीं हुआ, कारण यह कि वाद में पांडित्य के अलावा स्मृति, तर्कशक्ति, वादी के शब्द या अर्थ की भूल को तुरंत पकड़ने की सूझ, प्रत्युत्पन्नमति आदि की आवश्यकता रहती है। काशी की प्रतिष्ठा का प्रश्न खड़ा होने पर भट्टाचार्य के शिष्यों में से युवान शिष्य यशोविजयजी उसके लिए तैयार हुए। भट्टाचार्य ने यशोविजयजी को आशीर्वाद दिया । वादसभा हुई। कश्मीरी पण्डित को लगा कि यह युवक मेरे सामने कितने समय टिकेगा । वाद-विवाद बराबर जम गया। धीरे-धीरे पण्डित घबराने लगा। उसे दिन में तारे नजर आने लगे। बाद में यशोविजयजी के द्वारा एक के बाद एक ऐसे प्रश्न पूछे गए कि वादी पंडित उसका जवाब नहीं दे सका। अंत में उसने पराजय स्वीकार कर ली और काशी से भाग गया। इस प्रकार यशोविजयजी ने वाद में विजय प्राप्त करके काशी नगर का, काशी के पंडितों का और विद्यागुरु भट्टाचार्य का मान बचा लिया। इससे काशी के हिन्दू पंडितों ने मिलकर यशोविजयजी की विजय के उपलक्ष्य में नगर में उनकी शोभायात्रा निकाली। इस प्रसंग पर सभी हिन्दू पंडितों ने मिलकर उल्लासपूर्वक यशोविजयजी को 'न्याय विशारद' और 'तार्किक शिरोमणि' ऐसे विरुद दिए । इसका उल्लेख यशोविजयजी ने स्वयं प्रतिमाशतक तथा न्यायखंडखाद्य में किया है। .५ आगरा - काशी में अभ्यास पूरा करके यशोविजयजी गुरु महाराज के साथ आगरा आए । वहाँ चार वर्ष रहकर एक न्यायाचार्य के पास में तर्कसिद्धान्त आदि को विशेष अभ्यास किया। आगरा में तथा अनेक स्थानों पर योजित वादसभाओं में शास्त्रार्थ करके इन्होंने विजय प्राप्त की । यह उल्लेख सुजसवेलीभास में आया हैं। ५. पूर्व न्यायविशारदत्व विरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधैः न्यायाचार्य पदं ततः कृत शतग्रन्थस्य यस्यार्पितम्' । श्लोक नं. ॥२॥ यशोविजयजी कृत - प्रतिमाशतक' ग्रंथः पृष्ठ - १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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