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२६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
दीक्षा लेने के बाद स्वयं के गुरु नयविजयजी गणि के सान्निध्य में यशोविजयजी ने ग्यारह वर्ष तक संस्कृत और प्राकृत भाषा का व्याकरण, छंद, अलंकार तथा कोश और कर्मग्रंथ इत्यादि ग्रंथों का सतत अभ्यास किया। इनकी बुद्धि प्रतिभा तेजस्वी थी। स्मरण-शक्ति बलवान थी।
वि.सं. १६६६ में नयविजयजी के साथ यशोविजयजी राजनगरअहमदाबाद नगर में पधारे थे। वहाँ आकर इन्होंने अहमदाबाद संघ के समक्ष गुरु महाराज की उपस्थिति में आठ बड़े अवधानों को प्रयोग करके बताया। इसमें उन्होंने आठ सभाजनों द्वारा कही हुई आठ-आठ वस्तुएँ याद रखकर फिर क्रम से उन ६४ वस्तुओं को कहकर बताया। इनके इस अद्भुत प्रयोग से उपस्थित जनसमुदाय आश्चर्यमुग्ध हो गया। इनकी तीक्ष्ण बुद्धि तथा स्मरण-शक्ति की प्रशंसा चारों तरफ होने लगी। धनजी-सूरा नाम के एक श्रेष्ठि ने नयविजयजी से विनंती करते हुए कहा कि- "गुरुदेव! यशोविजयजी ज्ञान प्राप्त करने के लिए योग्य पात्र हैं। जो यह काशीनगर जाकर छ: दर्शनों का अभ्यास करेंगे, तो ये जैनदर्शन को अधिक उज्ज्वल बनायेंगे।"
काशी - उस समय काशी के पण्डित बिना पैसा नहीं पढ़ाते थे। धनजी' सूरा ने खर्च के लिए उत्साहपूर्वक दो हजार चाँदी की दीनारों की हुण्डी लिखकर काशी भेज दी। नयविजयजी ने मुनि यशोविजयजी, विनयविजयजी आदि साधुओं के साथ काशी तरफ विहार किया।
काशी में षड्दर्शनों के सर्वोच्च पंडित और नव्यन्याय के प्रकाण्ड ज्ञाता-ऐसे एक भट्टाचार्य थे। उनके पास न्याय-मीमांसा, सांख्य वैशैषिक आदि दर्शनों का अभ्यास करने में आठ-दस वर्ष लगते, परंतु यशोविजयजी ने उत्साहपूर्वक तीन वर्ष में सभी दर्शनों का गहरा अभ्यास कर लिया। अपने विद्यागुरु भट्टाचार्य के पास नव्यन्याय जैसे कठिन विषय का तथा तत्त्वचिंतामणि नामक दुर्बोध ग्रंथ का अभ्यास यशोविजयजी ने बहुत अच्छी तरह कर लिया।
४. सुजसवेली भास में लिखा है
धनजी सूरा साह, वचन गुरुनुं सुणी हो लाल आणी मन दीनार, रजत ना खरचस्युं हो लाल
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