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३१२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
लोभ -
- लोभ को पाप का बाप कहा गया है। ज्ञानार्णव में कहा गया है- “आगम में नरक के कारणभूत जितने दोष कहे गए हैं, वे सब प्रायः विवेक से रहित होने के कारण प्राणियों के लोभ के निमित्त से ही उत्पन्न होते हैं। कितने ही दीन-हीन प्राणी निरन्तर लोभ कषाय के वशीभूत होकर अभीष्ट पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा से परिश्रम करते हुए मृत्यु के मुख में चले जाते हैं और अपने जन्म को निष्फल करते हैं।"५७० क्रोध मान और माया की तरह लोभ भी चार प्रकार का बताया गया है१. अनन्तानुबन्धीलोभ - अनन्तानुबन्धीलोभ आजीवन रहता है। प्रथम कर्म ग्रन्थ में इसे कीड़े के रक्त से बने रंग की उपमा दी है। व्यक्ति की शरीर, धन, परिवार, सत्ता आदि के प्रति गहरी आसक्ति होती है, तब वह जीने की आकांक्षा से, आरोग्य की वांछा से धन सत्ता आदि की प्राप्ति के लिए कितने ही पाप करता है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि "जहाँ लाहो तहाँ लोहो, लाहा लोहो
पवड्ढइ।"५७१
जितना लाभ होता है, उतना लोभ भी बढ़ता जाता है, जैसे- सुभूम चक्रवर्ती छ: खण्ड जीतने के बाद भी उसकी लालसा समाप्त नहीं हुई। अन्य छः खण्ड जीतने के लिए लवणसमुद्र को पार करते हुए ही उसकी मृत्यु हो गई और मरकर वह सातवीं नरक में गया।
दशवैकालिकसूत्र ७२ में लोभ को सर्वविनाशक कहा गया है। २. अप्रत्याख्यानीलोभ - अप्रत्याख्यानीलोभ गाढ़ी के पहिए में लगी हुई कीट की तरह दीर्घकालिक होता है। सम्यग्दृष्टि जीव की कामना रहती है कि सभी जीवों का कल्याण हो, वे धर्म से संलग्न हों। जैसे- "क्षायिक सम्यक्त्वी श्रीकृष्ण ने अपने राज्य में घोषणा की थी कि जो भी नगरवासी संयम ग्रहण करें, तो उसके
५७०. ये केचित्सिद्धान्ते दोषाः श्वभ्रस्य साधकाः प्रोक्तः।
प्रभवन्ति निर्विचारं ते लोभादेव जन्तूनाम् ।।१०८ ।। नयन्ति विफलं जन्म प्रयासैर्मुत्युगोचरैः । वराकाः प्राणिनो ऽजस्त्रं लोभादप्राप्तवान्छिताः।।१०५।। -अक्षविषयनिरोधः, १८, ज्ञानावर्ण
उत्तराध्ययनसूत्र ८/१७ ५७२. लोहो सब्बविणासणो। दशवैकालिकसूत्र ८/३८ ।
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