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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३११
से मित्रता का व्यवहार करते हुए उसे विचित्र जलचरप्राणी को देखने के बहाने ले गया और श्रीपाल जैसे ही देखने के लिए झुका, तो उसे समुद्र में गिरा दिया। धवलसेठ की पूरी जिन्दगी विषमता में ही व्यतीत हुई और अंत में अपने ही हथियार से मरकर नरक में उत्पन्न हुआ। प्रथम कर्मग्रन्थ में इसे बांस की जड़ के समान बताया गया है।
अप्रत्याख्यानीमाया सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर भी अप्रत्याख्यानमाया रहती है। कभी-कभी अन्याय को समाप्त करने के लिए और न्याय की स्थापना करने के लिए माया का आश्रय लिया जाता है। जैसे गदायुद्ध में नाभि से नीचे प्रहार नहीं किया जाता है, लेकिन श्रीकृष्ण के इशारे से भीम ने दुर्योधन की जंघा पर कपट से प्रहार कर उसे मृत्यु की गोद में सुला दिया था ।
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प्रत्याख्यानीमाया प्रत्याख्यानीमाया को प्रथम कर्मग्रन्थ में गोमूत्र की तरह वक्ररेखात्मक कहा गया है। यह अल्पकालिक होती है। व्यक्ति स्वयं धर्माराधना करते हुए अन्य को सन्मार्ग से जोड़ने के लिए या उन्मार्ग से हटाने के लिए भी कई बार माया का सहारा लेता है, जैसे- नास्तिक राजा परदेशी को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसका मंत्री चित्त उन्हें नए खरीदे गए अश्व दिखाने के बहाने मृगवन की तरफ ले गया। वहाँ वह आचार्य केशी की तरफ आकर्षित हो गया। उसने आचार्य से सारी शंकाओं का समाधान करके बारह व्रत स्वीकार कर लिए।
संज्वलनमाया इस माया का स्वरूप छिलते हुए बाँस की छाल जैसा सामान्य मुड़ा हुआ होता है। कभी-कभी धर्म की हानि, शासन- निंदा के भय से और साधना हेतु भी माया होती है। जैसे- शून्यगृह में ध्यानस्थ खड़े जैनसाधु को बदनाम करने के लिए राजा श्रेणिक ने एक वेश्या को उसमें प्रवेश करवाकर बाहर से ताला लगा दिया। जब मुनि को सारी स्थिति का पता चला, तब उन्होंने जिनशासन की निंदा न हो, इसलिए सारे जैनसाधु के चिन्हों को जलाकर नष्ट कर दिया और राख को शरीर पर लगा ली। जब राजा ने तमाशा देखने के लिए चेलणा सहित सारी नगरी को इकठ्ठा करके वहाँ का ताला खुलवाया तब अन्दर से अलख निरंजन कहते हुए वैष्णव साधु और पीछे पीछे वेश्या बाहर आई। इस प्रकार उन्होंने जिनशासन को निंदा से बचाया । यह घटना श्रेणिक को सम्यक्त्व प्राप्त होने के पहले की है।
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