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________________ ३१०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री राजा ने घोषणा करवा दी, तब इस जैनधर्म के गौरव-तिलक की रक्षा के लिए कितने ही युवक-युवतियों ने 'तिलक अमर रहे'- यह उद्घोष करते हुए स्वयं ही उबलते हुए तेल में कूदकर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। ३. प्रत्याख्यानीमान - प्रत्याख्यानीमान का उदय साधनापद्धति में विशिष्ट राग के कारण होता है। प्रथम कर्मग्रन्थ में इसे लकड़ी के स्तम्भ की उपमा दी गई है। मांडवगढ़ के महामंत्री पेथड़शाह को प्रभुपूजा के समय राजा भी जिनालय से बाहर नहीं बुला सकते थे। उन्होंने मन्त्रीपद ही इस शर्त के साथ स्वीकार किया था। ४. संज्वलनमान - संज्वलनमान तृण के समान अल्पकालीन होता है। अल्प कषाय भी विषमता की ओर ले जाती है। जब तक मान मौजूद रहा, तब तक बाहुबली साम्ययोग की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सके। माया - ___माया, अर्थात् छल, कपट, दोहरा व्यक्तित्त्व, अन्दर कुछ और बाहर कुछ। माया कषाय कुटिलता का बोधक है। आ. हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में कहा है कि माया के द्वारा बगुले की तरह आचरण करने वाला और कुटिलता में निपुण पापी मनुष्य जगत् को ठगते हुए स्वयं ही ठगाता है।५६६ कहा भी गया है- “माया ठगनी ने ठगा, यह सारा संसार। जिसने माया को ठगा उसकी जयजयकार।" अल्प माया भी विचारों में विकल्प उत्पन्न कर देती है और व्यक्ति को विषमता की खाई में गिरा देती है। ज्ञानार्णव माया को कल्याण का नाश करने वाली तथा सत्यरूपी सूर्य को अस्त करने में संध्या के समान बताया है। आचारांगसूत्र में कहा गया है- “कितनी भी साधना हो, किंतु माया को कृश नहीं किया हो, तो सम्पूर्ण साधना निरर्थक है, क्योंकि माया की उपस्थिति में समत्वभाव नहीं टिक सकता है।" लक्ष्मणा साध्वी ने माया करके प्रायश्चित्त लिया। प्रायश्चित्त पूर्ण करने के बाद भी वह अपने पाप के दाग को नहीं धो पाई और उसका अनंत संसार बढ़ गया। माया भी चार प्रकार की होती है अनन्तानुबंधीमाया - मिथ्यात्व के कारण कंचन, कामिनी और काया के प्रति तीव्र आसक्ति रहती है। इन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति कई प्रकार के छल-प्रपंच करता है। जैसे- धवलसेठ ने कंचन-कामिनी की प्राप्ति के लिए श्रीपाल ५६८ कौटिल्यपटवः पापा मायया बकवत्तयः। भुवनं वंचयमाना वंचयंते स्वमेव हि।।१६ ।। - योगशास्त्र, ४, -हेमचन्द्राचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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