________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३०६
राजचन्द्र ने अपूर्व अवसर में कहा है कि क्रोध के प्रति क्रोध हो, वह संज्चलनक्रोध है । जैसे- चंडरुद्राचार्य को अपने क्रोध के प्रति रोष उत्पन्न हुआ, वे अपनी भूल का प्रायश्चित्त करने लगे और उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। यह क्रोध पानी में खिंची हुई लकीर के समान है। प्रथम कर्मग्रन्थ में संज्वलन कषाय की किसी एक प्रकृति के उदय का समय अधिक से अधिक पन्द्रह दिन का बताया है, किन्तु दिगम्बर-परम्परा में उसका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त बताया है, लेकिन यह जघन्यकाल की अपेक्षा से भी हो सकता है।
मान
-
मान, अर्थात् गर्व या अभिमान । यह भी अज्ञानता या अविवेक से उत्पन्न होता है। प्रशमरति में मान को द्वेष की पर्याय बताया है, किन्तु जब स्वयं के गुणों पर, या स्वयं की सत्ता या सम्पत्ति पर जो गर्व उत्पन्न होता है, उसे राग की पर्याय भी कह सकते हैं। क्रोध की तरह मान भी चार प्रकार का होता है
9.
अनंतानुबंधीमान - सम्यग्ज्ञान के अभाव में व्यक्ति परवस्तुओं को अपना मानकर उस पर गर्व करता रहता है। आ. शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव में कहा है“जिनकी बुद्धि कुल, जाति, प्रभुताबल आदि के गर्व से नष्ट हो गई है, वे अनुचित गर्व करके नीच गति में जाने योग्य कर्म का संचय करते हैं।” जैसेनेपोलियन ने सत्ता, बुद्धिबल आदि के मद में ही यह वाक्य कहा था कि मेरे शब्दकोश में 'असंभव' शब्द नहीं है। इस प्रकार के मान में प्रायः विषमता की स्थिति ही बनी रहती है। प्रथम कर्मग्रन्थ में अनंतानुबंध मान को पत्थर के स्तम्भ की उपमा दी है।
२.
अप्रत्याख्यानीमान
अव्रती सम्यग्दृष्टि जीव को अप्रत्याख्यानीमान का उदय रहता है। सम्यग्दृष्टि जीव को स्व-पर का भेदज्ञान होने के कारण परपदार्थों के स्वामित्व का गर्व समाप्त हो जाता है, किंतु उसमें स्वाभिमान विद्यमान रहता है। उनके स्वाभिमान पर चोंट पहुँचती है, तो अप्रत्याख्यानी मान जाग्रत हो जाता है या देव - गुरु-धर्म के प्रति राग होने के कारण उनका गौरव होता है और उनका अपमान सहन नहीं होता है। जैन-धर्म के विद्वेषी राजा अजयपाल ने अपने कपर्द्धिमन्त्री को आदेश दिया- “अपने कपाल पर यह चन्दन का तिलक लगाना बंद करो", किंतु परमात्मा की आज्ञा का पालन करने के प्रतीकरूप या जैनधर्म के गौरव के प्रतीकरूप तिलक को लगाना उसने बंद नहीं किया। तब राजा ने आदेश दिया - " या तो तिलक रहेगा या तुम।” पूरे राज्य में तिलक को नहीं लगाने की
Jain Education International
-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org