________________
३०५/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
गीता में श्रीकृष्ण ने काम, क्रोध तथा लोभ को आत्मा के मूल स्वभाव का नाश करने वाला नरक का द्वार बताया है। आत्मा को स्वभाव से विभाव की ओर ले जाने में, समत्व से विचलित करने में क्रोध प्रमुख भूमिका निभाता है। काल-मर्यादा की अपेक्षा से क्रोध चार प्रकार का होता है१. अनन्तानुबन्धीक्रोध - मिथ्यात्त्व अवस्था में शरीर में अहंबुद्धि होती है। पर पदार्थों पर ममत्व होता है। स्वजन, सम्पत्ति, पद, प्रतिष्ठा आदि में तीव्र आसक्ति होती है। आत्मतत्त्व की चर्चा अरुचिकर लगती है। अनंतानुबंधी क्रोध वर्षों नहीं मिटने वाली पर्वत की दरार के समान है। प्रथम कर्मग्रन्थ में इसका काल आजीवन बताया गया है। अनंतानुबंधी के क्षय, क्षयोपशम या उपशम होने पर रागद्वेष की निविड़ ग्रंथि का भेद हो जाता है। २. अप्रत्याख्यानीक्रोध - यह क्रोध गीली मिट्टी के सूखने पर जो दरार हो जाती है, उसके समान है। यह लम्बे समय तक रहता है। प्रथम कर्मग्रन्थ में इसकी अवधि वर्ष भर की बताई है। सम्यग्दर्शन का सूर्य उदित होने पर आत्मतत्त्व का अज्ञान-अंधकार नष्ट हो जाता है। शरीर के प्रति ममत्व की बुद्धि समाप्त हो जाती है। आत्मतत्त्व का बोध होता है। ऐसी स्थिति में अन्याय के होने पर क्रोध का जन्म होता है। सम्यग्दृष्टि को भी देव-गुरु और धर्म के प्रति राग होता है, अतः देव, गुरु, धर्म का अपमान करने वाले के प्रति आवेश आता है। वस्तुपाल महामंत्री ने राजा के मामा द्वारा एक बालमुनि को थप्पड़ मारने पर उसका हाथ कटवा दिया था। धर्म की हानि होते देख व्यक्ति को जो समत्व भंग हो जाता है और क्रोध उत्पन्न होता है, वह उसके बंध का हेतु होता है। ३. प्रत्याख्यानीक्रोध - अप्रत्याख्यानकषाय के नष्ट होने पर व्यक्ति श्रावक-जीवन के बारह व्रत स्वीकार करता है। उसके व्रतपालन में जब कोई बाधक बनता है, तब उसका समत्व भंग होता है। भगवान् महावीर के श्रावक महाशतक जब पौषधशाला में ध्यानस्थ थे, उस समय उनकी पत्नी रेवती ने उनको विचलित करने का बहुत प्रयास किया। तब वे समत्व से विचलित हो गए और क्रोध पूर्वक बोल उठे- "रेवती ! तुम्हारा रूप का अभिमान अधिक दिन तक रहने वाला नहीं है। तुम केवल सात दिनों में ही इस देह का त्याग करके नरक में जाओगी।" यह प्रत्याख्यानी क्रोध बालूरेत में बनी रेखा के समान है। प्रथम कर्मग्रन्थ में इसका समय चार माह तक बताया गया है। . ४. संज्वलनक्रोध - आत्मा में रमण करने वाले मुनि को अपने दोष कण्टक की तरह चुभते हैं। उन्हें अपने दोषों के प्रति ही रोष उत्पन्न होता है। श्रीमद्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org