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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३०७
१. प्रशस्तराग और २. अप्रशत्वराग
मोक्ष की प्राप्ति हेतु शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति हेतु तप, त्याग, ध्यान, प्रभुपूजा, व्रतपालन आदि शुभ क्रियाओं के प्रति जो रुचि होती है, वह शुभराग या प्रशस्तराग कहलाता है। तीर्थकरो की लोक मंगल की भावना परम करुणारूप है, रागरूप नहीं है। राग किसी पर होता है, यह व्यक्ति के सापेक्ष है, जबकि करुणा व्यक्तिनिरपेक्ष होती है, वह सभी पर होती है। जब करुणा का भाव व्यक्तिकेन्द्रित होता है, तो वह राग बन जाता है और जब वह व्यक्ति निरपेक्ष होता है, वह परम करुणा या सार्वजनिक प्रेम (Universal Love) बन जाता है, परंतु विश्वप्रेम, प्राणीमात्र पर प्रेम, कृपा, करुणा और उनको जन्ममरण से मुक्त करने की पवित्र भावना, उदात्त भावना समत्व को भंग नहीं करती है, क्योंकि इस भावना में शत्रु और मित्र की भेदरेखा नहीं है, सभी प्राणियों पर समभावना है, अतः यह परमकरुणा विषमता की ओर ले जाने वाली नहीं होती है। . पत्नी, पुत्र, परिवार, शरीर, सत्ता, सम्पत्ति, सौन्दर्य, इन्द्रिय-विषय, कषाय आदि में रमणता, तीव्र आसक्ति अप्रशस्तराग है और इसी अप्रशस्तराग के कारण व्यक्ति का समत्व भंग होता हैं।
विषमता को जन्म देने वाला राग ही द्वेष का भी मूल है तथा राग-द्वेष कषायों के मूल हैं। समवायांगसूत्र, विशेषावश्यकभाष्य आदि में कषाय के चार प्रकार बताए गए हैं
१. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ
"क्रोध एक ऐसा मनोविकार है, जिसके उत्पन्न होने पर शारीरिक, मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है", अर्थात् क्रोध शरीर और मन दोनों को विषमता की ओर ले जाता है। जैसे आँखें चौड़ी हो जाना, भृकुटी चढ़ाना, होंठ फड़फड़ाना, जिहवा लड़खड़ाना आदि। मन की विषमता जब बाहर प्रकट होती है, तब शरीर भी विषम हो जाता है। आ. शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कहा है कि क्रोधरूपी अग्नि रत्नों के समूह से संचित भंडार को निश्चय से ही जला डालती है। चारित्र एवं ज्ञान से प्राप्त हुए समत्व को क्रोध भस्म कर डालता है, क्योंकि क्रोध मे व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है, फिर उसका समत्वभाव नहीं टिकता है। क्रोध के वशीभूत होकर द्वैपायनमुनि ने स्वर्गपुरी के समान द्वारिका नगरी को जला दिया। चंडकौशिकमुनि समत्व खोकर शिष्य पर क्रोधित हुए, उसे मारने के लिए दौड़े और स्वयं का ही घात हो गया। संत से सर्प के भव तक पहुंच गए।
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