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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३०५
ममकार और अहंकार- इन दो शब्दों में समावेश हो जाता है। राग-द्वेष उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है"अहं ममेति मत्रोऽयं, मोहस्य जगदान्थ्यकृत्",५६५ मैं और मेरा- यह पूरे जगत् को अंधा बनाने वाला मंत्र है। अहंकार और ममकार- ये दोनों कषायों के उत्तेजक पदार्थ हैं। आ. उमास्वाति ने प्रशमरति में माया और लोभ नाम के कषाय को राग की संज्ञा दी तथा क्रोध और मान नामक कषाय को द्वेष की संज्ञा दी।५६६
राग और द्वेष अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं और व्यक्ति को समत्व से विचलित कर देते हैं। प्रशमरति ६७ में राग के आठ पर्याय वर्णित हैं१. इच्छा - यह 'इष्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है
चाहना। जब तक इच्छाएं जाग्रत हैं, तब तक मन की चंचलता भी बनी रहती है। जहाँ इच्छानिरोध की बात आती है, वहाँ राग के क्षय
होने की बात भी समझना चाहिए। २. मूर्छा बाह्य पदार्थों पर तीव्र आसक्ति, यह भी राग का
ही पर्यायवाची शब्द है। ३. काम
प्रीति, अभिलाष, प्रियसंयोग की विशेष भावना। ४. स्नेह व्यक्ति विशेष के प्रति अनुराग। ५. गृद्धता अमर्यादित आकांक्षाएँ, विषयों में सघन लिप्सा। ६. ममत्व ___ - वस्तु या व्यक्ति के प्रति मालिकी। ७. अभिनन्द - इष्टवस्तु के मिलने पर अति हर्ष।
ममकाराहक्ड़ारावेषां मूलं पदद्वयं भवति। रागद्वेषावित्यापि तस्यैवान्यस्तु पर्यायः ।।३१। कषाय और विषय प्र. ३, प्रशरति, उमास्वाति माया लोभकषायश्चेत्येतद्रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुनद्वेष इति समास निर्दिष्टः।।३२ । प्र. ३, प्रशमरति, उमास्वाति इच्छा मूर्छा कामः स्नेहो गार्थ्य ममत्वमभिनन्दः।। अभिलाष इत्येनेकानि रागपर्यायवचनानि ।।१८।। वैराग्य, प्र. २, प्रशमरति, उमास्वाति
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