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________________ ३०४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री बाह्य पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि करके उनकी प्राप्ति व परिहार के लिए पापाचरण करने में असमर्थ हो जाता है।"५६४ राग-द्वेष के नष्ट हो जाने पर साधक चाहे जंगल में हो या महल में विषयों के बीच हो या विषयों से दूर, निंदकों के बीच हो या प्रशंसकों के बीचवह सदैव समतामृत का पान करता रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कैसी भी परिस्थिति उसके समत्व को भंग नहीं कर सकती है, जबकि राग और द्वेष के होने पर व्यक्ति निमित्त पाते ही समत्व से विचलित हो जाता है, फिर चाहे, वह तपस्वी हो, ज्ञानी हो, या ध्यानी हो। जैसे स्कंधकसरि के पाँच सौ शिष्यों ने राग-द्वेष के समाप्त होने पर तेल की घाणी में पिले जाने पर भी अपना समत्व भंग नहीं होने दिया और अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लिया, जबकि स्कंधकसरि को सबसे छोटे शिष्य के प्रति राग जाग्रत हो गया और राग के आने पर द्वेष भी आकर खड़ा हो जाता है, अतः शिष्य के प्रति राग और पालक मंत्री के प्रति द्वेष होने से उनका समत्व भंग हो गया तथा वे आर्तध्यान में चले गए और अपना भवभ्रमण बढ़ा लिया। ___ज्ञानार्णव में कहा गया है- “समत्व के बिना मूर्ख लोग तप करके अपना शरीर कृश बनाते हैं, लेकिन विद्वान लोग शरीर में विकार बनाने वाले मन की ही शक्ति को क्षीण करते हैं, मन को जीतते हैं, अर्थात् मन को राग-द्वेष से रहित बनाते हैं; जैसे-कुत्ता आदमी के फेंके हुए लकड़ी-पत्थर आदि हथियार को क्रोध से दंश देता है, लेकिन सिंह हथियार फेंकने वाले को ही मार डालता है, वह हथियार पर नहीं परंतु हथियार फेंकने वाले पर झपटता है।" ___ मन पर विजय पाने वाले स्थूलिभद्र षट्रस भोजन करते हुए वेश्यालय में रहकर भी निष्कामी बने रहे। कोशा वेश्या ने उनके समत्व को भंग करने के लिए कई उपाय किए, लेकिन वह सफल नहीं हो सकी, जबकि सिंहगुफावासी साधु तपस्वी होते हुए भी कोशा वेश्या को देखते ही उस पर आसक्त हो गया। इससे स्पष्ट होता है कि राग और द्वेष ही व्यक्ति में विषमता को उत्पन्न करते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चारों कषाय राग और द्वेष के ही पर्याय है। आ. उमास्वातिजी ने प्रशमरति में बताया है कि कषायों का मूल ५६४. मर्खास्तपोभिः क्रशयन्ति देहं बुधा मनो देहविकारहेतुम् श्वा क्षिप्तमस्त्रं ग्रसते ऽतिकोपात् क्षेप्तारमस्त्रस्य निहन्ति सिंहः।।१०।। ___-रागादिनिवारणम् २१, ज्ञानार्णव, आ. शुभचन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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