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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३०३ नहीं बच सकता है। बाह्यपदार्थों का सम्पर्क होने पर यह स्वाभाविक है कि उनमें से कुछ हमें अनुकूल और कुछ प्रतिकूल लगें, किन्तु अनुकूलता के प्रति राग और प्रतिकूलता के प्रति द्वेष के कारण ही व्यक्ति समत्व से विचलित होता है राग और द्वेष में भी मूल कारण राग ही है। जो हमारे राग का विषय है, उसकी प्राप्ति में बाधक तत्त्व द्वेष का कारण बनता है।"
जैसे किसी गुलाब के खिले हुए सुन्दर पुष्प को देखकर उस पर राग उत्पन्न हुआ। राग के उत्पन्न होने पर उसे तोड़ने की इच्छा हुई। पुष्प को तोड़ते हुए यदि कोई काँटा लग जाए, तो उससे द्वेष उत्पन्न हो जाता है, अतः जब तक राग की समाप्ति न हो, तब तक समत्व की प्राप्ति नहीं होती है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “यदि ममता जाग्रत हो, अन्दर विषयों के प्रति राग विद्यमान हो, तो विषयों का त्याग करने से क्या होगा ? मात्र केंचुली का त्याग करने से सर्प विषरहित नहीं होता है।" ५६२ व्यक्ति के रोम-रोम में राग का विष व्याप्त है, ममता का जहर फैला हुआ है। राग निर्मूल हो जाए, तो विषय-भोग का त्याग सहज हो जाता है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार के शमाष्टक में राग को सर्प की उपमा देते हुए कहा है कि "सम के सुभाषितरूपी अमृत से जिसका मन रात-दिन सिंचित है, उसके चित्त में रागरूपी नाग का जहर नहीं फैल सकता।"५६३ जिस तरह एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकतीं, उस तरह जहाँ समत्व है, वहाँ ममत्व नहीं रह सकता है, अतः विषमता के प्रमुख कारण राग-द्वेष और कषाय हैं। जब व्यक्ति राग को अपने हृदय में स्थान देता है, तो वहाँ द्वेष भी आकर खड़ा हो जाता है, यह निश्चित है और इन दोनों के आश्रय से मन अतिशय पराक्रम दिखाता है। वह इष्टसंयोग और अनिष्टवियोग आदि के दुर्ध्यान में प्रवृत्त हो जाता है। इस तरह उसके मन का समत्व भंग हो जाता है।
ज्ञानार्णव में कहा गया है- “जिस पक्षी के पंख कट गए हैं, वह जिस प्रकार उपद्रव करने में असमर्थ हो जाता है, उसी प्रकार राग-द्वेषरूपी पंखों के कट जाने पर, उनके नष्ट हो जाने पर मनरूपी पक्षी भी उपद्रव करने के साथ ही
५६२. विषयैः किं परित्यक्तैर्जागर्ति ममता यदि।
त्यागात्कंचुकमात्रस्य भुजंगो न हि निर्विषः ।।२।। -ममत्व त्यागाधिकार-अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी शमसूक्तसुधासिक्तं, येषां नक्तं, दिनं मनः। कदापि ते न दह्यन्ते, रागोरगविषोभिभिः।।७। शमाष्टक, ६, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी
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