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३०२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
__ मनुष्य और तिर्यन्च जब भूमि पर चलते हैं, तो धूल में उनके पैरों के निशान बन जाते हैं। यह देखकर कोई व्यक्ति पक्षियों के पैरों के चिन्ह को
आकाश में और मछली के पैरों के चिन्ह को पानी में खोजे, तो उसे मुर्ख कहते हैं। उसी तरह समत्व आत्मस्वभाव में रमण करने वाले साधक के आनंद को देखकर कोई व्यक्ति राग-द्वेष, मोह-माया के बीच में इस बाहरी जगत् में उस आनंद को प्राप्त करना चाहे, तो वह व्यक्ति मूर्ख ही सिद्ध होता है। समत्व, वीतरागता, आत्मस्वभाव, परमसुख-ये सभी लगभग एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। इस समतारूप रस का अनुभव अन्तरात्मदशा में रमण करता हुआ योगी ही कर सकता है।
समत्व स्वभावदशा है। विभाव में दुःख है। स्वभाव में सुख है, अतः विभावदशा को त्यजकर स्वभाव में रमन करें- यही उ. यशोविजयजी की मूलदृष्टि है।
विषमता के कारण - राग, द्वेष और कषाय
समत्व आत्मा का स्वभाव है, इसका वर्णन पूर्व में किया गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि आत्मा का समत्त्व भंग कैसे होता है या आत्मा की विषमता का कारण क्या है? जब तक आत्मा की विषमता के कारणों को नहीं जानेंगे, तब तक उनका निराकरण भी सम्भव नहीं होगा और जब तक हम आत्मा के समत्व को विचलित करने वाले कारणों को दूर नहीं करेंगे, तब तक समत्व की साधना भी सम्भव नहीं होगी।
__ जैसे पानी का स्वभाव शीतल है, लेकिन वह अग्नि के संयोग से ऊष्ण हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव भी समत्व है, किंतु अनादिकाल से भाव कर्मरूप रागद्वेषादि से युक्त हैं, अतः बाह्य पदार्थों को निमित्त मिलने पर अपने समत्त्वरूपी स्वभाव से वह विचलित हो जाती है। मनुष्य अपनी इन्द्रियों के माध्यम से बाह्यपदार्थों के सम्पर्क में आता है। उसे कुछ पदार्थ अनुकूल और कुछ पदार्थ प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। प्रायः साधारण व्यक्ति को अनुकूलता से राग और प्रतिकूलता से द्वेष उत्पन्न होता है और इन्हीं राग और द्वेष के कारण आत्मा का समत्व भंग होता है।
“मनोवैज्ञानिक दृष्टि से राग और द्वेष को मानसिक विकार माना गया है। जब तक शरीर और इन्द्रियाँ हैं, तब तक व्यक्ति बाह्यपदार्थों के सम्पर्क से
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