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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३०१ सर्वप्रथम उ. यशोविजयजी द्वारा ज्ञानसार में दी गई समत्व की व्याख्या इस प्रकार है- "विकल्परूप विषयों से निवृत्त बनी निरन्तर आत्मा के शुद्ध स्वभाव का आलंबन जिसे है, ऐसा ज्ञान का परिणाम समभाव कहलाता है।" ५५६ हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में समत्व की परिभाषा देते हुए कहा- “सम, अर्थात् राग और द्वेष की वृत्तियों से रहित मनःस्थिति को प्राप्त करना ही समत्व है। यही समत्वयोग है। दूसरे शब्दों में क्रोधादि कषायों को शांत करना ही समत्वयोग है।"५५° यह भी कहा गया है कि सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखना ही समत्वयोग है ५६ “सम का अर्थ है एकीभाव और अय का अर्थ है गमन है अर्थात् एकीभाव के द्वारा बहिर्मुखता का त्याग करके अन्तर्मुख होना। दूसरे शब्दों में आत्मा का स्व-स्वरूप में रमण करना या स्वभावदशा में स्थित होना ही समत्वयोग है।"५५६
इस प्रकार जब हम इन विभिन्न परिभाषाओं का आकलन करते हैं, तो यही निष्कर्ष निकलता है कि समत्व आत्मा का स्वभाव है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "समता आत्मा का परम से परम निगूढ़ तत्त्व है। जो अध्यात्म मार्ग की ओर मुड़े है वे जीव प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा समता को प्रकट कर सकते हैं।"५६° संत आनंदघनजी ने एक पद में कहा है
खग पद गगन मीन पद जल में, जो खोजे सो बोरा चित्त पंकज खोजे सो चिो रमता अंतर भमरा ॥४॥६॥
विकल्पविषयोत्तीर्णः स्वभावऽऽलम्बनः सदा। ज्ञानस्य परिपाको यः स शमः परिकीर्तितः।। -शमाष्टक ६, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी योगशास्त्र -४/४६- आचार्य हेमचन्द्र (अ) सामायिकसूत्र (अमरमुनि) पृ. २७-२८ (ब) विशेषावश्यकभाष्य -३४७७ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग २, पृ. ६-डॉ. सागरमल जैन परस्मातपरमेषा यन्निगूढं तत्त्वमात्मनः। तदध्यात्मप्रसादेन कार्योऽस्यामेव निर्भरः।।२६।। -समाधिकार, ६, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी सत्ताईसवाँ पद -संत आनंदघनजी
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