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________________ ३००/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री अनुभव कर सकता है। उसके लिए दूसरे का सहयोग अपेक्षित नहीं है। हार स्वयं का ही है और स्वयं के पास ही है । उसी तरह समतारूपी आभूषण आत्मा का ही है, आत्मा के पास ही है। जीव राग-द्वेष के भ्रम में पड़ा हुआ उसे देख नहीं पाता है। जैसे ही राग-द्वेष कम होते हैं, वैसे ही समता प्रकट हो जाती है । ' इसके लिए किसी का सहारा नहीं लेना पड़ता है, क्योंकि यह आत्मा का स्वभाव है। समत्व ही आत्मस्वभाव है। एक प्राचीन लोकोक्ति है- 'काँख में छोरो, गाम में ढिंढोरो', अर्थात् स्वयं की वस्तु स्वयं के पास ही है, लेकिन उसकी खोज बाहर कर रहे हैं। कहीं से शांति मिल जाए, कहीं से सुख मिल जाए, समत्व की प्राप्ति हो जाए, परंतु यह असभंव है। जो वस्तु जहाँ है, वहीं से मिलेगी । ,,,५५४ एक वृद्धा झोपड़ी के बाहर कुछ ढूंढ रही थी । एक युवती ने पूछा"माँजी क्या ढूंढ रही हो?" वृद्धा ने कहा- “बेटी सुई ढूंढ रही हूँ।” युवती ने पूछा - "माँजी वह सुई गिर कहाँ गई थी?” तब वृद्धा ने कहा- “सूई तो झोपड़ी के अंदर गिरी थी।” युवती बोली- “सूई अंदर गिरी, तो उसे बाहर क्यों ढूंढ रही हो?" वृद्धा बोली - " बाहर प्रकाश है । " चाहे कितना भी प्रकाश हो, लेकिन जो वस्तु जहाँ नहीं है, वहाँ से कैसे मिलेगी ? चाहे भौतिक जगत् में कितनी ही चकाचौंध हो, पौद्गलिक सुख की सामग्री हो, लेकिन समत्व, शांति या अत्मिक सुख को कितना भी बाहर खोजें, नहीं मिलेगा। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “जब जीव को यह आभास हो जाता है कि 'स्वयं के प्रयोजन की सिद्धि स्वयं के अधीन है', तब बाह्य पदार्थों के विषय में उठने वाले संकल्प - विकल्प समाप्त हो जाते हैं। "५५५ जब जीव को यह प्रतीति हो जाती है कि स्वयं का सुख स्वयं के स्वरूपानुभव में ही है, तब समत्वरूपी परम सुख की प्राप्ति के लिए बाह्य पदार्थों का आश्रय लेने की क्या आवश्यकता ? विभिन्न आचार्यों ने समत्व की परिभाषाएँ दी हैं, उन सबसे भी यही सिद्ध होता है कि समत्व आत्मस्वभाव है। ५५४ ५५५ लब्धे स्वभावे कंठस्थ स्वर्णन्यायाद् भ्रमक्षये । रागद्वेषानुपस्थानात् समता स्यादनाहता । ७ । - समताधिकार, ६, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी स्वप्रयोजनसंसिद्धिः स्वायत्ता भासते यदा । बहिर्थेषु संकल्पसमुत्यानं तदा हतम् । । ६ । । समाधिकार, ६, अ. सार, उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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