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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २६६
उपाधि, अर्थात् मिट्टी आदि से युक्त खदान मे से निकला गंदा पत्थर भी प्रयत्न से चमकदार हो जाता है, अथवा स्फटिक के पीछे लाल - काली कोई भी रंग की वस्तु रखी हो, तो स्फटिक उस रंग का लगता है, लेकिन वस्तु को हटा लेने पर स्फटिक निर्मल दिखाई देता है। उसकी यह निर्मलता कहीं बाहर से नहीं आई, उज्ज्वलता स्फटिक का स्वभाव ही है, उसी तरह जैसे ही आत्मा के राग-द्वेषरूपी मल दूर हो जाते हैं, वैसे ही उसमें समत्व प्रकट हो जाता है, क्योंकि 'समत्व' 'रागद्वेष' से अतीत अवस्था है। यह आत्मा का स्व-स्वभाव है। इसे हम एक उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। जैसे- एक कमरे में सब लोग बैठे हुए हैं। लोगों के द्वारा जो कमरे में रिक्त स्थान है, वह भर गया है। वह रिक्त स्थान कहीं बाहर नहीं निकल गया है। अगर उस रिक्त स्थान को वापस उपलब्ध करना हो, तो उसे कहीं बाहर से लाना नहीं पड़ेगा। कमरे में बैठे व्यक्ति यदि बाहर हो जाएं, तो कमरा वापस रिक्त हो जाएगा। इसका आशय यह है कि रिक्त स्थान तो मौजूद है, लेकिन वह तो लोगों से दब गया हैं। उसी प्रकार समत्व आत्मा का स्वभाव है, वह हमेशा उपस्थित ही रहता है । कहीं बाहर से समत्व नहीं आता हैं। वह ममत्व के कारण दब गया है, प्रकट नहीं हो पा रहा है। ममत्व - भाव का विसर्जन होते ही समता उपलब्ध हो जाएगी।
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भगवतीसूत्र में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि आत्मा का स्वभाव समत्व है और उस समत्व को प्राप्त कर लेना ही जीवन का परम पुरुषार्थ है । नयचक्र में समता को शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्रधर्म और स्वभाव की आराधना कहा गया है। अतः चेतना या आत्मा समत्वरूप हैं, किंतु उसका यह समत्व राग-द्वेष की उपस्थिति से भंग हो जाता है। समत्व के बिना वीतराग नहीं है और वीतरागता के बिना समत्व नहीं है। आत्मा स्वभावतः वीतरागी ही है।
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उ. यशोविजयजी ने गले में रहे हुए स्वर्ण - अलंकार का दृष्टान्त देकर यह बताया कि आत्मभ्रान्ति किस तरह दूर होती है। वे कहते हैं- “कोई मनुष्य अपने स्वर्ण के कीमती हार के खो जाने की चिंता से ग्रसित है और उसी समय उसे ध्यान में आया कि हार तो मेरे कंठ में ही है, वह स्वयं ही उसे हाथ लगाकर
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व्यक्तायां ममतायां च समता प्रथते स्वतः
स्फटिके गलितोषाधौ यथा निर्मलता गुणः ।। १ ।। - समता अधिकार, ६, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
नयचक्र वृहद् श्लो. ६४
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