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________________ २६८ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री प्रशमरस का वास्तविक दर्शन करने के लिए धनपाल के कथानक का श्लोक ही पर्याप्त है। भोजराजा ने धनपाल पंडित को पूजा की सामग्री देकर परमात्मा की पूजा करने के लिए भेजा। धनपाल पूजा हेतु अनेक मन्दिरों में गए लेकिन बिना पूजा कर वापस बाहर आ गए। अन्त में वे वीतराग जिनेश्वर के मन्दिर में गए। वहाँ जिनेश्वर का प्रशमरस से युक्त स्वरूप देखकर भावविभोर हो गए और उनके मुख से सहज ही निम्न श्लोक निकला “प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मप्रसन्नं, वदनकमलमकूङः कामिनीसंगशून्यः। करयुगमपि यत् ते शस्त्रसंबन्धवन्ध्यं, तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव । । " यह श्लोक साम्यरस में डूबे योगी के स्वरूप का कथन कर रहा है। है वीतराग ! आपकी मूर्ति साम्यरस में निमग्न है। आपकी दोनों आँखें प्रसन्न हैं । आपका अंक स्त्रीसंग के बिना का है। हाथ में कोई शस्त्र नहीं है। इसलिए तुम ही वास्तविक रूप में वीतराग हो । इसमें खास ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस पौद्गलिक जगत् में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसकी प्रशमसुख के साथ तुलना की जा सके। परिशुद्ध साम्ययोग केवल अनुभवगम्य है। सैंकड़ों शास्त्र भी साम्ययोग को स्पष्टरूप से बताने में समर्थ नहीं हैं। सामर्थ्ययोग नाम का स्व-अनुभव ही समता के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करा सकता है। २. समत्व आत्मस्वभाव समत्व वास्तव में आत्मा का स्वभाव है। समत्व कहीं बाहर से नहीं आता हैं, आत्मा से ही प्रकट होता है । उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में समत्व को एक सुंदर उपमा देकर बताया है कि जैसे- “मल के दूर हो जाने पर स्फटिक में रहा हुआ निर्मलता का गुण स्वयं ही अपने-आप प्रकट हो जाता है, ठीक उसी तरह ममता का त्याग करते ही समत्व अपने आप आत्मा में से प्रकट हो जाता Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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