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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २६७
इस प्रकार के साम्ययोग को प्राप्त करने वाले योगी के जीवन की विशेषता क्या होती है, अर्थात् साम्ययोग का अधिकारी कौन होता है? इसका उत्तर देते हुए उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में लोकोत्तर साम्य को प्राप्त करने वाले अधिकारी की तीन विशेषताएँ बताईं हैं
१. “स्वगुणाभ्यासरतमति” - सर्वप्रथम वे आत्मिक गुणों के अभ्यास में अत्यंत जाग्रत रहते हैं।
२. परप्रवृत्ति में वे अंधे, गूंगे और बहरे के समान होते हैं, अर्थात् उनके पास पर की पंचायत करने का समय नहीं रहता है । वे पौद्गलिक प्रवृत्तियों में अंधे, गूंगे और बहरे होते हैं। नारदपरिव्राजक उपनिषद् में भी कहा गया है कि स्वयं की तरह सभी जीवों को देखते हुए अंधे की तरह, ( राग-द्वेष से मुक्त रहते हुए) सभी कुछ सुनते हुए भी बहरे के समान, और शब्द - सामर्थ्य से युक्त होकर गूंगे के समान नहीं बोलने वाले योगी पृथ्वी पर विचरण करते हैं, उनको देखकर देवता भी नमन करते हैं।
युक्त योगी लोकोत्तर साम्य को प्राप्त करते हैं।
३. " आत्मा के आनंद में रमने वाले” ५५०
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पू
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उ. यशोविजयजी साम्ययोग की महत्ता प्रतिपादित करने के लिए भरत महाराजा का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं- "समता का ही आश्रय लेकर भरत आदि ने मोक्ष को प्राप्त किया था। उन्होंने कोई भी कष्टरूप अनुष्ठान नहीं किया था। " मरुदेवी माता को भी समता की आराधना के प्रभाव से ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने कोई व्रत, संयम धारण नहीं किया था और न ही लोच, परिषह, विहार, तप आदि कष्ट सहन किए थे। साम्ययोग का आलंबन लेकर ही उन्होंने मंजिल प्राप्त की। तात्पर्य है कि मोक्षमार्ग में केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधने योग्य सर्वश्रेष्ठ वस्तु समता है । समतारूपी नींव मजबूत नहीं हो, तो बाकी की इमारत कच्ची रहती है, कभी भी गिर सकती है।
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इन तीन विशेषताओं से
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आत्मप्रवृत्तावति जागरूकः परप्रवृत्तौ बधिरान्मूकः ।
सदाचिदानन्दोपयोगी, लोकोत्तरं साम्यमुपैति योगी ।। २ ।। - अध्यात्मोपनिषद्, ४, उ. यशोविजयजी
आश्रित समतामेकां निर्वृत्ता भरतादयः ।
न हि कष्टमनुष्ठानभभूत्तेषां तु किंचन । १६ ।। समताधिकार, ६, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
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