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२६६ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
द्वारा, अथवा समुद्र द्वारा अस्थिरता को प्राप्त नहीं करती है, क्योंकि वह अत्यन्त स्थिर है। "५४५
धर्मदासगणि ने उपदेशमाला में साम्ययोगी मुनियों के लक्षण बताते हुए कहा है- "कोई मनुष्य मुनि के हाथ पर चंदन का विलेपन करे या कोई उनके हाथ की चमड़ी उतारे, कोई उसकी स्तुति करे या कोई निन्दा करें, किन्तु उत्तममुनि दोनों के प्रति समभाव वाले होते हैं। हर्ष और विषाद से अतीत- ऐसे निस्पृह योगी को ही साम्ययोगी कहते हैं । '
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तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए हेमचन्द्राचार्य ने सकलार्हत्स्त्रोत ५४७ में कहा है कि एक तरफ कमठ भयंकर उपसर्ग कर रहा था, तो दूसरी तरफ धरणेन्द्र भगवान की सेवा कर रहा था, उनके उपसर्ग को दूर कर रहा था, किन्तु पार्श्वनाथ भगवान को न तो कमठ के प्रति द्वेष था और न धरणेन्द्र के प्रति राग था। उनके मन में दोनों के प्रति एक जैसा भाव था। दोनों के प्रति तुल्य मनोवृत्ति थी । यही साम्ययोग की पराकाष्ठा है। अध्यात्मतत्त्वालोक में भी कहा गया हैं- “ समतारूपी सरोवर में निमग्न हुए साधकों के रागादि मल क्षीण हो जाते हैं। उन्हें अद्वितीय आनंद का अनुभव होता है । ४८ उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में साम्ययोग के अनूठे आनंद के विषय में कहा है- “ शान्त रस रूप साम्ययोग के अद्वितीय रस के अनुभव से जो अतीन्द्रिय तृप्ति होती है, वह जिह्वेन्द्रिय द्वारा षट्स के भोजन से भी नहीं होती है। "५४६
५४५ परीषहैश्च प्रबलोपसर्गयोगाच्चलत्येव न साम्ययुक्तः ।
स्थैर्याद्विपर्यासमुपैति जातु क्षमा न शैलैर्न च सिन्धुनाथैः ।। ३१ ।। अध्यात्मोपनिषद्, ४, उ. यशोविजयजी
५४६ जो चंदणेण बाहु, आलिंपइ वासिणा वि तच्छेई
संथुणाइ जो अ निंदइ महरिसिणो तत्थ समभावा ।। ६२ । उपदेशमाला-धर्मदासगणि ५४७ कमठे धरणेन्द्र च स्वोचितं कर्म कुर्वति ।
प्रभुस्तुल्य मनोवृत्ति पार्श्वनाथ श्रीयेऽस्तु वः ।। -सकलार्हत्स्तोत्र - हेमचन्द्राचार्य ५४८ मनोविशुद्धयै समताऽवलम्ब्या निमज्जतां साम्यसरोवरे यत् ।
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रागादिकम्लानिपरिक्षयः स्याद् अमन्द आनन्द उपेयते च ।। १३ ।। - समता प्रकरण, ५, अध्यात्मतत्त्वालोक - न्यायविजयजी
या शान्तैकरसास्वादाद्भवेत् तृप्तिरतीन्द्रिया ।
सा न जिवेन्द्रियद्वारा, षड्रसास्वादनादपि ।।३।। तृप्ति अष्टक १०, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी
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