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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २६५
समतारूपी नाव ही सहायक हो सकती है।” १४२ उ. यशोविजयजी ने यह बताया है कि मोक्षमार्ग की आराधना के लिए स्वरूपानुभवयुक्त समता की, अर्थात् साम्ययोग की अनिवार्यता सर्वाधिक है। समता के बिना भौतिक अभिलाषा से किए गए तप आदि कर्म की निर्जरा में सहायभूत नहीं होते हैं।
आ. उमास्वाति ने प्रशमरति ५४३ में समतारूप सुख की चार महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बताईं हैं- १. समतारूपी सुख स्वाधीन है २. यह सुख प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है ३. इसे पैसे देकर खरीदना नहीं पड़ता है ४. यह सुख दुःख से रहित है और इससे अनंतसुख की प्राप्ति होती है। सांसारिक विषयसुख पराधीन होते हैं। उनसे वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं होती हैं, जबकि समतारूपी सुख तो स्वयं के अन्दर ही है, स्वाधीन है। यह सुख देवलोक के सुख की तरह या मोक्षसुख की तरह परोक्ष नहीं है । समतारूपी सुख का अनुभव अभी इस जन्म में प्रत्यक्ष कर सकते हैं। यह सुख दुःखमिश्रित नहीं है ।
उ. यशोविजयजी पुनः कहते हैं- “मुक्ति का उपाय मात्र समता ही है। अन्य जो-जो क्रियाए बताई गई हैं, वे पुरुष के योग्यता - भेद के आधार पर समता की विशेष सिद्धि के लिए बताईं गईं हैं। ' ।,५४४ साम्ययोग के उत्कृष्ट साधक कुरगडू मुनि ने समता का अवलंबन लेकर संवत्सर के दिन भात खाते-खाते भी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया, जबकि समता को साधे बिना उत्कृष्टतप आदि करते हुए अनेक साधक केवल्य को प्राप्त नहीं कर सके, यह समता की ही महिमा है ।
उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में साम्ययोग को सिद्ध करने वाले साधक की विशेषता बताते हुए कहा है- “ साम्यभाव से युक्त ऐसे योगी कभी भी परिषहों से या उपसर्ग के योग से चलायमान नहीं होते हैं। पृथ्वी कभी भी पर्वतों
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किं दानेन तपोर्भिवा यमैश्च नियमैश्च किम्
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एकैव समता सेव्या तरिः संसारवारिधौ । ।१२ ।। समताधिकार, ६, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् ।
प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न व्ययप्राप्तम् ।। २३७ ।। प्रश्म ११, प्रशमरति, उमास्वाति । उपायः समतैवैका मुक्तेरन्यः क्रियाभरः ।
तत्तत्पुरुषभेदेन तस्या एव प्रसिद्धये ।। २७ ।। - समताधिकार, ६, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
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