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२६४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
सप्तम अध्याय साम्ययोग की साधना
१. साम्ययोग का स्वरूप -
साम्ययोग, अर्थात् समता की अनुभूति वह उत्कृष्ट भूमिका है, जो साधक का मोक्ष से योग करती है। चाहे शत्रु हो या मित्र, राजा हो या रंक, फूल हो या कांटे, सुगंध हो या दुर्गंध, सुन्दर हो या कुरूप; किसी भी पदार्थयुगल या व्यक्तियुगल द्वारा हमारे चित्त में आकर्षण, अर्थात् रागभाव तथा अनाकर्षण अर्थात् द्वेषभाव उत्पन्न न हो, यही समता की साधना है। उ. यशोविजयजी कहते हैं“पदार्थों में प्रिय और अप्रिय की कल्पना नहीं करना व्यवहार से समता है। निश्चयदृष्टि से उनमें ममत्व का विसर्जन करने से चित्तवृत्ति में जो स्थिरता प्रकट होती है, उसे समता कहते हैं।"५४° दुःख का मूल ममता है और सुख का मूल समता है।
आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में समता की महिमा दर्शाते हुए कहा है"जिन कर्मों को करोड़ों जन्म तक तीव्र तपस्या करते हुए भी तोड़ नहीं सकते हैं, उन कमों को समता का अवलम्बन लेकर क्षणमात्र में नष्ट कर सकते हैं। समता से जो सुख मिलता है, वह अवर्णनीय है।"५४ उ. यशोविजयजी ने भी साम्ययोग को मोक्ष का साक्षात् कारण बताते हुए कहा है- “यदि एक तरफ दान, तप, यम, नियम आदि को रखा जाए और दूसरी तरफ समता को रखा जाए, तो दोनों में समता का ही महत्त्व अधिक है। संसाररूपी सागर से पार पहुँचने के लिए मात्र
५४०. प्रियाप्रियत्वयोर्यार्थे व्यवहारस्य कल्पना।
निश्चयात्तद्व्युदासेन स्तैमित्यं समतोच्यते ।।२।। - समताधिकार, ६, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी प्रणिहंति क्षणार्धेन साम्यमालंब्य कर्म तत्। यन्न हन्यान्नरस्तीव्र -तपसा जन्मकोटिभिः ।।१।। -योगशास्त्र-चतुर्थप्रकाश-आचार्य हेमचन्द्र
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