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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २६३ उ. यशोविजयजी परिषहों के बीच भी साधु की निर्भयता और अडिगता का वर्णन करते हुए कहते है कि “विष ही विष का तथा अग्नि ही अग्नि का औषध बनता है यह सत्य है। उसी प्रकार संसार से भयभीत बनी आत्मा को उपसर्ग प्राप्त होने पर भी कोई भय नहीं होता है।"५३६ वे हँसते हुए परिषहों को सहन करते है। ____ उत्तराध्ययन५३७, समवायांग३८ और तत्त्वार्थसूत्र ३६ में परिषह की संख्या बाईस मानी गई है। १. क्षुधापरिषह २. पिपासा ३. शीत ४. ऊष्ण ५. देशमशक ६. अचेल ७. अरति ८. स्त्री ६. चर्या १०. निषद्या ११. शय्या १२. आक्रोश १३. वध १४. याचना १५. अलाभ १६. रोग १७. तृणस्पर्श १८. मल १६. सत्कार-पुरस्कार २०. अज्ञान २१. अदर्शन (दर्शन) २२. प्रज्ञा परिषह मुनि आत्मसाधना में जितनी भी बाधाएं उपस्थित हों, उन्हें मन में आर्तध्यान अथवा संक्लेशरूप परिणाम किये बिना समभावपूर्वक सहन करते हुए इन परिषहों पर विजय प्राप्त करता है। क्रियायोग की उत्कृष्ट भूमि का पहुंचा हुआ साधक जीवन के अंतिम समय में संलेखना करता है। जीवन की अंतिम वेला में शरीर के प्रति अनासक्ति की यह साधना एक उत्कृष्ट साधना है। संलेखना मन की उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है। संलेखना जीवनशुद्धि और मरणशुद्धि की एक प्रक्रिया है। इसे समाधिमरण भी कहते हैं। इस प्रकार क्रियायोग की साधना सम्यक्त्व से प्रारम्भ होकर श्रावक की भूमिका तथा उसके बाद साधु की भूमिका निभाते हुए अन्त में समाधिमरण पर समाप्त होती है। . ५३६. विषं विषस्य वन्हेहश्च वन्हिरेव यदौषधम् । तत्सत्यं भवभीतानामुपसर्गेऽपि यन्न भीः।।७।। -भवोद्वेग-२२, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी उत्तराध्ययनसूत्र -दूसरा अध्ययन समवायांग, समवाय -२२ तत्त्वार्थसूत्र, ६-६, उमास्वाति ५३८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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