________________
२६२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
३. वृत्ति संक्षेप
५३५
करना।
४. रसत्याग - घी, दूध आदि विकृतियों का त्याग करना ।
५. कायक्लेश - सर्दी, गर्मी लोचादि शारीरिक कष्टों को सहन
करना।
६. संलीनता ( विविक्त शय्यासन ) अंगोपांग संकोचना, उन पर
संयम रखना।
३. वैयावृत्य
करना।
खाने पीने की वस्तुओं की मात्रा को संक्षिप्त
छः आभ्यन्तर तप
१. प्रायश्चित - दोषों की गुरु के पास से आलोचना लेना।
२. विनय - ज्ञान - दर्शन चारित्र तथा गुणवान् आदि के प्रति भक्ति
रखना।
आचार्य, उपाध्याय वृद्ध ग्लान आदि की सेवा
५. ध्यान
४. स्वाध्याय ज्ञान प्राप्त करने के लिए पाँच प्रकार का स्वाध्याय
करना।
-
-
Jain Education International
आर्त्त तथा रोद्र ध्यान का त्याग करके धर्म तथा शुक्ल
ध्यान ध्याना।
६. कायोत्सर्ग - शरीर आदि के प्रति ममत्व का त्याग।
परिषह :
मुनि को अपनी संयम साधना के पथ पर कदम बढ़ाते हुए विविध कष्ट सहन करने पड़ते है। स्वीकृत मार्ग से च्युत न होने के लिए और निर्जरा ( कर्मक्षय) के लिए जो कुछ सहा जाता है, वह परिग्रह है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- " जिस प्रकार धन के अभिलाषी के लिए सर्दी गर्मी आदि के कष्ट दुस्सह नहीं होते हैं, उसी प्रकार संसार से विरक्त तत्त्वज्ञान के अभिलाषी साधकों के लिए भी कोई कष्ट दुस्सह नही होता है । "" । ५३५ परिषह सहन करने से अहिंसा आदि जो महाव्रत स्वीकार किए गए हैं, उन महाव्रतों की सुरक्षा होती है।
धनार्थिनां यथा नास्ति शीततापादि दुस्सहम्
तथा भवविरक्तां, तत्त्वज्ञानार्थिनामपि । । ३ । । -तपाष्टक - ज्ञानसार
For Private & Personal Use Only
उ. यशोविजयजी
www.jainelibrary.org