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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २६१
पराजित नहीं होता है और जिसने इन इन्द्रियों पर विजय पा ली
है, वही पुरुषों में उत्तम माना जाता है।"५३१
इस प्रकार श्रमण के दस धर्म के उल्लेख के बाद अब बारह प्रकार के तप तथा बावीस परिग्रहों का उल्लेख किया जा रहा है।
बारह प्रकार के तप - तप आत्मशोधन की प्रक्रिया है। राग द्वेष से उपार्जित पापकों को क्षय करने के लिए तप अमोघ साधन है। "तप कर्मों को नष्ट करता है। तप के दो भेद में से अन्तरंग तप ही इष्ट है बाह्य तप उसके सहायक अर्थात् उसकी वृद्धि करने वाले हैं।" ५३२ यदि हम सभी तीर्थंकरों के पूर्वभवों का अध्ययन करें, तो ज्ञात होगा कि सभी तीर्थंकरों ने पूर्वभवों में तप की महान साधनाएँ की थी। उ. यशोविजयजी तपाष्टक में शुद्धतप की परिभाषा बताते हुए कहते है कि "जिसमें ब्रह्मचर्य है जिनपूजा है, कषायों का क्षय है तथा अनुबंधसहित जिनाज्ञा प्रवर्तमान है, वह तप शुद्ध कहलाता है।"५३३ तप के भेद बताते हुए अध्यात्मसार में वे कहते हैं कि "आत्मशक्ति का उत्थान करने वाला चित्तवृत्तियों को निरोध करने वाला शुद्ध ज्ञान युक्त ऐसा उत्तम तप बारह प्रकार
का है।।५३४
छः बाह्यतप - १. अनशन - चारों प्रकार के आहारों का थोड़े समय के लिए या
कायम त्याग करना। २. ऊनौदरिका (उणोदरी) - भूख से कुछ कम खाना।
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विवेकद्विपहर्यक्षः समाधिधनतस्करैः इन्द्रियैर्न जितोयोऽसौ, धीराणां धुरि गण्यते।।।। इन्द्रियजयाष्टक-७, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां ताफ्नात्तपः। तदाभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्य तदुपबृंहकम् ।।१।। -तपाष्टक - ज्ञानसार- उ. यशोविजयजी यत्र ब्रह्मजिनार्चा च, कषायाणां तथा हतिः। सानुबन्धा जिनाज्ञा च तत्तपः शुद्धिमिष्यते।।६।। - तपाष्टक -ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी सत्तपो द्वादशविधं शुद्धज्ञानसमन्वितम्। आत्मशक्तिसमुत्थानं चित्तवृत्तिनिरोधकृत् ।।१५६ ।। - आत्मनिश्चय अधिकार १८, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
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