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________________ २६०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री संयम - संयम जीवन की अद्भुत कला है। देवता भी संयम के लिए तरसते है। आगमसाहित्य में सत्रह प्रकार के संयम का उल्लेख है। स्थानांग में मन संयम, वचनसंयम, कायसंयम, और उपकरणसंयम ये चार प्रकार के संयम हैं। कहीं पर संयम दो प्रकार के होते है- प्राणीसंयम और इन्द्रियसंयमा उ. यशोविजयजी कहते हैं- "यदि तू संसार से डरता है और मोक्षप्राप्ति की आकांक्षा रखता है, तो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए उग्र पराक्रम प्रकट कर।"५२८ अर्थात इन्द्रियों पर संयम रख संयम मोक्ष का साधन है। ७. तप - बाह्य तथा आभ्यन्तर रूप से तप बारह प्रकार का होता है। तप निर्जरा का प्रमुख साधन है। इसका विस्तार से विश्लेषण आगे किया गया है। त्याग - राग में दुःख है और त्याग में सुख है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “जिस प्रकार बादलरहित चन्द्रमा अपने तेज से स्वयं प्रकाशित होता है, उसी प्रकार अनंत गुणों से परिपूर्ण त्यागवंत साध का स्वरूप स्वयं प्रकाशित होता है।"५२६ जितने भी मोक्ष के साधन हैं, उनमें त्याग को सर्वोत्तम साधन माना गया है। आचार्य अकलंक ने सचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग माना है। ५३० आकिंचन्य - आभ्यन्तर और बाह्य परिग्रह का त्याग करके आत्मभाव में रमण करना आकिंचन्य है। आवश्यकचूर्णि में आकिंचनत्व का अर्थ अपने देह आदि में भी निर्ममत्व रखना किया गया है। १०. ब्रह्मचर्य - पाँचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग ब्रह्मचर्य है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "विवेकरूप हाथी को नष्ट करने में सिंह के समान और समाधिरूप धन को लूटने वाली दुष्ट इन्द्रियों से जो विभेषि यदि संसारान्मोक्षप्राप्तिं च काक्षसि। तदेन्द्रियजयं कर्तुं स्फोरय स्फारपौरुषम।।१।। -इन्द्रियजयाष्टक-ज्ञानसार -उ. यशोविजयजी वस्तुवस्तु गुणैः पूर्णमनन्तेर्भासते स्वतः । रूपं त्यक्तात्मनः साधोर्निरभ्रस्य विधोरिव ।।८।। तत्त्वार्थराजवार्तिक अ. ६ सू. ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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