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२५८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
११. लोस्वरूपभावना - चौदहराज लोक के स्वरूप का चिंतन इस भावना में किया जाता है।
१२. बोधिदुर्लभभावना :- धर्म की सामग्री, समकित की प्राप्ति आदि का प्राप्त होना बहुत कठिन है इस सम्बन्ध में चिंतन बोधिदुर्लभ भावना में किया जाता है। मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ धर्मध्यान को पुष्ट करने वाली इन चारों भावनाओं का भी चिंतन करना चाहिए। दसश्रमणधर्म :
जीवन के जितने भी निर्मल, दिव्य और भव्य बनाने के विधि-विधान है वे सब धर्म कहलाते हैं। श्रमणों के दसधर्मों का वर्णन आगमों मे मिलता है। उ. यशोविजयजी के ग्रन्थों में भी दस धर्मों का स्वरूप अलग-अलग स्थानों पर मिलता है। समवायांग५२०, स्थानांग५२१, तत्त्वार्थसूत्र ५२२, आवश्यकचूर्णि आदि ग्रन्थों में दसविधयतिधर्म का वर्णन मिलता है। ये दस धर्म निम्न प्रकार से हैं
क्षमाधर्म - क्रोध का निग्रह करना, क्रोध के निमित्त मिलने पर भी शांति रखना क्षमा है। क्षमा हृदय से उत्पन्न होती है, वह आत्मा का स्वभाव है। क्रोध बाहर से आता है, वह कर्म का स्वभाव है। उ. यशोविजयजी कहते हैं कि क्षमा के बिना किए गए तप जप आदि की समाप्ति केवल यश के उपार्जन में हो जाती है। क्षमा के अभाव में जीव कामधेनु चिंतामणिरत्न और कामकुंभ के समान अमूल्य क्रियाओं को काणी-कौड़ी के मूल्य वाला बना देता है।५२३ अतः क्षमारूपी कवच को साधु को हमेशा धारण करके रखना
चाहिए।
२. मार्दव - मान का निग्रह, मुनि जातिमद, कुलमद, ऐश्वर्यमद,
तपमद, बलमद, बुद्धिमद, लाभमद, श्रुतमद, आदि आठ प्रकार के
समवायांग सम. १० तत्त्वार्थसूत्र ६/६
उत्तमा खमा मद्दवं, अज्जवं मुत्ती, सोयं, सत्त्वो, संजमो, तवो अकिंचणत्तणं बंभचेरेमिति । __ -आवश्यकचूर्णि
साम्यं विना यस्य तपः क्रियादेर्निष्ठा प्रतिष्ठार्जनमात्र एव। स्वर्धेनुचिन्तामणिकामकुम्भान् करोत्यसौ काणकपर्दमूल्यान् ।।१३।। -अध्यात्मोपनिषद - उ. यशोविजयजी
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