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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २८७
४. एकत्वभावना - अध्यात्मसार में उ. यशोविजयजी ने इस भावना का वर्णन करते हुए लिखा है- “जीव अकेला ही परभव में जाता है और अकेला ही उत्पन्न होता है, तो भी जीव ममता के आवेग में सभी के प्रति ममत्व की कल्पना करता है।"१८ जीव कर्म भी अकेला ही बाँधता है और भोगता भी अकेला ही है। कोई सहभागी नहीं होता है। नमिराजा ने एकत्व भावना को भाते-भाते वैराग्य प्राप्त किया था।
५. अन्यत्वभावना - शरीर आदि सभी आत्मा से भिन्न हैं। उ. यशोविजयजी कहते हैं- तत्त्वदृष्टि से समग्र संसार का सूक्ष्म अवलोकन किया जाए तो पता चलेगा कि प्रत्येक आत्मा भिन्न-भिन्न है, पुद्गल भी भिन्न-भिन्न हैं और सभी संबंध शून्य हैं।१६ मरुदेवा माता ने अन्यत्व भावना को भाते-भाते केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था।
६. अशुचिभावना - शरीर अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ है। इसके संपर्क से पवित्र वस्तु भी अपवित्र हो जाती है। लहसुन, कपूर, बरास आदि सुगंधित पदार्थो से वासित करने पर भी वह अपनी दुर्गंध नहीं छोड़ती है; उसी प्रकार शरीर भी अपनी स्वाभाविक दुर्गन्ध नहीं छोड़ता है। इस प्रकार शरीर की अपवित्रता का चिंतन अशुचिभावना में किया जाता है।
७. आश्रवभावना - कर्मबंधन के स्थान, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग आदि का तथा उनकी प्रणालिका के संबंध में विचार करना आश्रव भावना है।
८. संवरभावना - आते हुए कर्मों पर रोक लगाने वाले मार्गों की विचारणा संवर भावना में की जाती है।
६. निर्जराभावना - बाँधे हुए कर्मों को भोगे बिना ही नष्ट करने के तप आदि मार्गो का चिंतन निर्जरा भावना में किया जाता है।
१०. धर्मभावना - धर्म के स्वरूप का विशिष्ट चिंतन इस भावना में किया जाता है।
६. एकः परभवेयाति जायते चैक एव हि। ममतोद्रेकतः सर्व संबंध कल्पयत्यथ ।।५।।
-ममत्वत्यागाधिकार -अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो विभिन्नाः पुद्गला अपि।। शून्यः संसर्ग इत्येवं यः पश्चति स पश्चति ।।२१।। - ममत्वत्यागाधिकार -अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी
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