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________________ २८६ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री चक्कर आए, तो धरती घूमती हुई लगती है; उसी प्रकार अनित्य संबंध में मनुष्य को नित्यता का आभास होता है। "५५ भरत चक्रवर्ती ने इस भावना को भाते- भाते केवलज्ञान पाया। २. अशरणभावना - पुद्गल के संबंध संकट हरने वाले या शरण देने वाले नहीं हैं। उ. यशोविजयजी शांतसुधारस में अशरण्भावना का वर्णन करते हुए कहते हैं- " अपने अतुल बल से पूरी पृथ्वी पर विजय पाने वाले सम्राट चक्रवर्ती, और सदा सुख में लीन रहने वाले देव देवेन्द्रों के ऊपर जब यमराज आक्रमण करता है तब वे ही सम्राट चक्रवर्ती देव-देवेन्द्र दीन-हीन बनकर अशरण हो जाते हैं । " ,५१६ प्यार भरी माता पास में खड़ी हो, वात्यल्य भरे पिता पास में खड़े हो प्रेमपूर्ण पत्नी पास में हों, अनेक स्वजन - मित्र खड़े हों, धन-दौलत, करोड़ों की सम्पत्ति, महल आदि सब पड़े रह जाते हैं, सब देखते रह जाते हैं और यमराज जीव को उठाकर ले जाता है। यही सबसे बड़ी अशरणता है। अनाथी मुनि को यही भावना भाते - भाते वैराग्य उत्पन्न होता है। ३. संसारभावना इस भावना में चार गति रूप संसार और भवभ्रमण का विचार किया जाता है उ. यशाविजयजी कहते है कि "यह संसार कारागृह है। इसमे प्रिया का स्नेह बेड़ी के समान है । पुत्रादि स्वजन परिवार सिपाहि जैसे है । धन नये बंधन की तरह है। अभिमान रूपी अशुचि से भरा हुआ यह स्थल है। अनेक प्रकार के दुःखो से यह भयंकर है। सभी लोग अपने-अपने स्वार्थ को साधने में हमेशा तत्पर रहते है । विद्वान पुरुष को संसार पर प्रीति हो ऐसा कोई भी स्थान नहीं है।,५१७ ५१५ ५१६ ५१७ - मातापित्रादिसंबंधोऽनियतोऽपि ममत्वतः । दृढभूमिभ्रमवतां नैयत्येनावभासते । ॥ २० ॥ - ममत्वत्यागाधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी ये षट्खण्डमहीनतरसा निर्जित्य ब्रभ्राजिरे, ये च स्वर्गभुजो भुजोर्जितमदा मेदुर्मुदा मेदुशः । तेऽपि क्रूरकृतान्तवक्त्ररदनैर्निर्दल्यमाना हठा प्रेक्षन्त - दीनाननाः । । १ । । दत्राणाः शरणाय हा दशदिशः Jain Education International - अशरणभावना - शांतसुधारस - उ विनयविजयजी प्रियास्नेहो यस्मिन्निगडसदृशो यमिकभटो - पमः स्वीयो वर्गो धनमभिनवं बंधनमिव ।। मदामेध्यापूर्णं व्यसनबिलसंसर्गविषमम् । भवकारगेहं तदिह न रातिः क्वापि विदुषाम् । । ८ । । जनाः स्वार्थस्फातावनिशमवदाताशयभृतः । ।१४।। -भवस्वरूपचिंताधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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