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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २८५
१०. उपसंपदा - गुरुजनों की आज्ञा से ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए
अन्य गच्छ के आचार्य के पास जाना दसवीं उपसंपदा
सामाचारी है। - सामाचारी का पालन साधक के लिए आवश्यक है। इससे साधक के जीवन में दुर्गुण नष्ट होते हैं और सद्गुण प्रकट होते हैं।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- "जब तक शिक्षा के सम्यक् परिणाम से आत्मस्वरूप के बोध द्वारा स्वयं का गुरुत्व प्रकट नहीं होता तब तक उत्तम गुरु का सेवन करना चाहिए।"५१३
बारह भावनाएँ बारह भावनाओं के अनुप्रेक्षा भी कहते हैं। ये भावनाएँ ध्यान की पूर्वगामिनी और ध्यान में स्थिरता प्रदान करने वाली हैं। यह मन बहुत चंचल है। हमेशा एक ही प्रकार के ध्यान में स्थिर नहीं रह सकता है। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार के ध्यानाधिकार में कहा है- “ध्यान से जब निवृत्त हो, तब भी अभ्रान्त आत्मा को हमेशा अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करना चाहिए, क्योंकि ये भावनाएँ ध्यान की प्राणरूप हैं।"५१७
बारह भावनाएँ निम्नांकित हैं
१. अनित्यभावना - सांसारिक सभी संबंध अनित्य हैं। इन्द्रियजन्य विषयसुख क्षणविनाशी हैं और आयुष्य अति चंचल है। जितने भी संयोग हैं, उनका वियोग निश्चित है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- "माता-पिता आदि का सम्बन्ध अनियत है, फिर भी ममत्व में अंधा भ्रमित व्यक्ति उन्हें नित्य मानता है। मनुष्य जिस धरती पर खड़ा है, वह धरती स्थिर और दृढ़ है, किंतु जब उसे
गुरुत्वं स्वस्य नोदेति शिक्षासात्म्येन यावता। आत्मतत्त्वप्रकाशेन, तावत् सेव्यो गुरुत्तमः ।।५।। -त्यागाष्टक -८, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा ध्यानस्योपरमेऽपि हि। भावयेन्नित्यमभ्रान्तः प्राणा ध्यानस्य ता:खलु ।७०।। -ध्यानाधिकार -अ. सार- उ. यशोविजयजी
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