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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २८३ वचनगुप्ति - संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होते हुए वचन को यतनापूर्वक निवृत्त करना वचनगुप्ति है, अथवा जिस भाषण में प्रवृत्ति करने वाला आत्मा अशुभकार्य का विस्तार करती है, ऐसे वचनों का प्रयोग नहीं करना वाकगृप्ति है, अथवा सम्पूर्ण प्रकार के वचनों का त्याग करना वचनगुप्ति है। ५०५ वचनगुप्ति भी
मनोगुप्ति की तरह ही चार प्रकार की होती है।०६ ३. कायगुप्ति - शारीरिक क्रिया सम्बन्धी संरम्भ, समारम्भ और आरंभ
में प्रवृत्ति नहीं करना, उठने-बैठने, चलने-सोने आदि में संयम रखना, अशुभ व्यापारों का परित्याग करना, यतना पूर्वक सत्प्रवृत्ति
करना कायगुप्ति है।५०७ समिति का प्रयोजन चरित्र में प्रवृत्ति करना और गुप्ति का प्रयोजन अशुभ प्रवृत्तियों में योगो का निरोध करना है।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- “यदि अस्थिरतारूपी अंदर के महाशल्य को दूर न किया जाए तो क्रियारूप औषधि लाभ नहीं करती है, तो इसमें क्रिया का कोई दोष नहीं है।"५०८
अतः पहले गुप्तियों द्वारा मन-वचन काया पर नियंत्रण करना आवश्यक है। अब संक्षिप्त में दस सामाचारी को प्रस्तुत किया जा रहा हैसामाचारी :
सामाचारी साधु-जीवन में छोटे-बड़े नवदीक्षित, स्थविर, गुरु-शिष्य आदि के पारस्परिक व्यवहारों और कर्त्तव्यों की आचारसंहिता है। साथ ही साधु को आत्मलक्ष्यी बनाने हेतु भी यह सामाचारी है, अर्थात् दिन या रात में किस समय कौन-सी सत्क्रिया की जाए। सामाचारी का वर्णन भगवती ०६, स्थानांग१०,
५०५
५०६.
५०७.
उत्तराध्ययन - अ. २४/२० उत्तराध्ययन - अ. २४/२२ उत्तराध्ययन - अ. २४/२४-२५ अन्तर्गत महाशल्य -मस्थैर्य यदि नोद्धृतम।। क्रियौषधस्य को दोष स्तक्ष गुणमयच्छतः।।४।। -स्थिरता -३, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी भगवती २५, ७ स्थानांग १०, सूत्र ७४६
५१०.
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